Posted on 07-May-2024 04:49 PM
अहिछत्रपुर में सोमदत्त नाम के मन्त्री थे; उनकी सगर्भा पत्नी को आम खाने की इच्छा हुई। वह मौसम आम पकने का नहीं था, तथापि मन्त्री ने वन में जाकर खोज की तो सारे वन में एक आम वृक्ष पर सुन्दर आम झूल रहे थे। उन्हें आश्चर्य हुआ। उस वृक्ष के नीचे एक जैन मुनि विराजमान थे, उसके प्रभाव से वृक्षपर आम पक गए थे। मन्त्री ने भक्तिपूर्वक नमस्कार करके मुनिराज से धर्म का स्वरूप सुना तो अत्यन्त वैराग्यवश उसी समय दीक्षा लेकर मुनि हो गए और पर्वत पर जाकर आत्मध्यान करने लगे।
सोमदत्त मन्त्री की स्त्री यक्षदत्ता ने पुत्र को जन्म दिया। वह पुत्र को लेकर मुनिराज के पास गयी, लेकिन संसार से विरक्त मुनि ने उसके सन्मुख दृष्टि न की, अतः क्रोधपूर्वक वह स्त्री बोली-यदि साधु होना था तो तुमने विवाह क्यों किया? मेरा जीवन क्यों बिगाड़ा? अब इस पुत्र का पालन-पोषण कौन करेगा? ऐसा कहकर मुनिराज के चरणों में बालक को रखकर चली गयी। इसी बालक का नाम वज्रकुमार है। उसके हाथ में वज्र का चिह्न था।
अरे! वन में बालक की रक्षा कौन करेगा?ठीक उसी समय दिवाकर नाम का विद्याधर राजा तीर्थयात्रा करने को निकला, वह मुनि को वन्दन करने आया, और अत्यन्त तेजस्वी उस वज्रकुमार बालक को देखकर उठा लिया। ऐसे पुत्ररत्न की प्राप्ति होने से रानी भी प्रसन्न हुयी। वे उस बालक को अपने साथ ले गए और पुत्र की तरह उसका पालन-पोषण करने लगे। भाग्यवान जीवों को कोई न कोई योग प्राप्त हो ही जाता है।
वज्रकुमार युवा होने पर पवनवेगा नाम की विद्याधरी के साथ उनका विवाह हुआ और उसने बहुत से राजाओं को जीत लिया।
कुछ समय बाद दिवाकर राजा की रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। अपने ही पुत्र को राज्य मिले, इस लालसा में वह वज्रकुमार से द्वेष करने लगी। एकबार वह गुस्से में बोली कि अरे! यह किसका पुत्र है? यहाँ आकर मुझे व्यर्थ हैरान करता है।
यह सुनते ही वज्रकुमार का मन उदास हो गया। उसे विश्वास हो गया कि मेरे सच्चे माता-पिता दूसरे हैं। अतः उसने विद्याधर से वास्तविक स्थिति जान ली। उसे ज्ञात हुआ कि मेरे पिता दीक्षा ग्रहण करके मुनि हो गए हैं। वह शीघ्र ही विमान में बैठकर मुनि के पास गया।
ध्यानस्थ सोमदत्त मुनिराज को देखकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ, उसका चित्त शान्त हुआ, विचित्र संसार के प्रति उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ और पिता के पास से मानों धर्म का उत्तराधिकार माँगता हो! ऐसी परम भक्ति से वन्दन करके कहा-हे पूज्य देव! मुझे भी साधु दीक्षा दो! इस संसार में मुझे आत्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी सार नहीं लगता।
दिवाकर देव ने उसे दीक्षा न लेने के लिए बहुत समझाया, परन्तु वज्रकुमार ने दीक्षा ही ग्रहण की; वे साधु होकर आत्मा का ज्ञान-ध्यान करने लगे और देश-देशान्तर में घूमकर धर्मप्रभावना करने लगे। एकबार उनके प्रताप से मथुरानगरी में धर्मप्रभावना की एक महान घटना हुयी। क्या घटना हुयी- उसे देखने के लिए अपनी कथा को मथुरानगरी में ले चलते हैं।
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मथुरानगरी में एक गरीब बालिका जूठन खाकर पेट भरती थी, उसे देखकर एक अवधिज्ञानी मुनि बोले कि देखो, कर्म की विचित्रता! यही लड़की कुछ समय में राजा की पटरानी होगी।
मुनि की यह बात सुनकर एक बौद्धभिक्षुक उसे अपने मठ में ले गया और उसका पालन-पोषण करने लगा। उसका नाम बुद्धदासी रखा और उसे बौद्धधर्म के संस्कार दिए।
जब वह युवती हुई, तब उसका अत्यन्त सुन्दररूप देखकर राजा मोहित हो गया और उसके साथ विवाह करने की माँग की। परन्तु उस राजा के उर्विला नाम की एक रानी थी जो जैनधर्म का पालन करती थी, इसलिए मठ के लोगों ने कहा कि यदि राजा स्वयं बौद्धधर्म स्वीकार करें और बौद्धदासी को पटरानी बनायें तो हम विवाह कर देते हैं। कामान्ध राजा ने तो बिना विचारे यह बात स्वीकार कर ली। धिक्कार है विषयो को! विषयान्ध जीव सत्यधर्म से भी भ्रष्ट हो जाता है।
अब बुद्धदासी राजा की पटरानी हुयी, अतः वह बौद्धधर्म का बहुत प्रचार करने लगी। एक बार उर्विलारानी जोकि जैनधर्म की परमभक्त थी, उसने प्रति वर्ष की भाँति अष्टाह्निका पर्व में जिनेन्द्र भगवान की विशाल अद्भुत रथयात्रा निकालने की तैयार की, परन्तु बौद्धदासी से यह सहन न हुआ। उसने राजा से कहकर वह रथयात्रा रुकवा दी और बौद्ध की रथयात्रा पहले निकालने को कहा। अरे! जैनधर्म के परम महिमा की उसे कहाँ खबर थी? गाय और आक के दूध का अन्तर मन्दाध पुरुष क्या जानेगा?
जिनेन्द्र भगवान की रथयात्रा में विघ्न होने से उर्विलारानी को बहुत दुःख हुआ और जब तक रथयात्रा नहीं निकलेगी, तब तक के लिए अनशनव्रत ग्रहण करके वह वन में सोमदत्त और वज्रकुमार मुनि की शरण में पहुँची और प्रार्थना करने लगी कि हे प्रभो! जैनधर्म के ऊपर आये हुए संकट को आप दूर करें।
रानी की बात सुनकर वज्रकुमार मुनिराज के अन्तर में धर्म-प्रभावना का भाव जागृत हुआ। इसी समय दिवाकर राजा आदि विद्याधर वहाँ मुनि को वन्दन करकने आए; वज्रकुमार मुनि ने कहा-राजन ! तुम जैनधर्म के परम भक्त हो और मथुरा नगरी में जैन-धर्म पर संकट आया है, उसे दूर करने में तुम समर्थ हो। धर्मात्माओं को धर्म की प्रभावना का उत्साह होता है, वे तन से मन से धन से शास्त्र से ज्ञान से विद्या से सर्वप्रकार से जैनधर्म की वृद्धि करते हैं और धर्मात्माओं के कष्टों को दूर करते हैं।
दिवाकर राजा धर्मप्रेमी तो थे ही, और मुनिराज के उपदेश से उन्हें प्रेरणा मिली, शीघ्र ही मुनिराज को नमस्कार करके उर्विलारानी के साथ समस्त विद्याधर मथुरा आये और धामधूम पूर्वक जिनेन्द्रदेव की रथयात्रा निकाली। हजारों विद्याधरों के प्रभाव को देखकर राजा और बौद्धदासी भी आश्चर्यचकित हुए और जैनधर्म से प्रभावित होकर आनन्दपूर्वक उन्होंने जैनधर्म अङ्गीकार करके अपना कल्याण किया तथा सत्यधर्म प्राप्त कराने के लिए उर्विलरानी का उपकार माना। उर्विलारानी ने उन्हें जैन धर्म के वीतरागी देव-गुरु की अपार महिमा समझायी। मथुरा नगरी के हजारों जीव भी ऐसी महान प्रभावना देखकर आनन्दित हुए और बहुमानपूर्वक जैनधर्म की उपासना करने लगे। इस प्रकार वज्रकुमार मुनि और उर्विलारानी द्वारा जैनधर्म की महान प्रभावना हुयी।
[वज्रकुमार मुनि की कथा हमें जैनधर्म की सेवा करना और अत्यन्त महिमापूर्वक उसकी प्रभावना करना सिखाती है। तन- मन-धन से, ज्ञान से, श्रद्धा से, सर्वप्रकार से, धर्म के ऊपर आया संकट दूर करके धर्म की महिमा और उसकी वृद्धि करना चाहिए। वर्तमान में तो मुख्यतः ज्ञान-साहित्य द्वारा धर्म-प्रभावना करना योग्य है।]
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