स्थितिकरण-अंग में प्रसिद्ध वारिषेण मुनि की कथा



महावीर भगवान के समय में राजगृही नगरी में श्रेणिक राजा राज्य करते थे। चेलनादेवी उनकी महारानी और वारिषेण उनका पुत्र था। वारिषेण के अति सुन्दर बत्तीस रानियाँ होते हुए भी वह बहुत वैरागी तथा आत्मज्ञान धारक था।

एकबार राजकुमार वारिषेण उद्यान में ध्यान कर रहे थे, इतने में विद्युत नाम का चोर एक मूल्यवान हार की चोरी करके भाग रहा था उसके पीछे सैनिक भाग रहे थे। 'मैं पकड़ा जाऊँगा'- इस डर के कारण हार को वारिषेण के आगे फेंककर वह चोर छिप गया, राजकुमार को ही चोर समझकर राजा ने फाँसी की सजा दी, परन्तु जब बधिक ने राजकुमार पर तलवार चलायी, तब वारिषेण के गले में तलवार के बदले पुष्पों की माला हो गयी, तथापि राजकुमार तो मौनरूप से ध्यान में ही थे।

ऐसा चमत्कार देखकर चोर को पश्चाताप हुआ। उसने राजा से कहा कि मैं हार का चोर हूँ, मैंने ही हार की चोरी की थी, यह राजकुमार तो निर्दोष हैं। इस बात को सुनकर राजा ने राजकुमार से क्षमा माँगी और राजमहल में आने को कहा।

परन्तु वैरागी वारिषेणकुमार ने कहा- पिताजी ! इस असार संसार से अब जी भर गया है: राजपाट में कहीं भी मेरा मन नहीं लगता, मेरा चित्त तो एक चैतन्यस्वरूप आत्मा को ही साधने में मग्न है, अब में दीक्षा ग्रहण करके मुनि होऊँगा। ऐसा कहकर एक मुनिराज के पास जाकर दीक्षा ग्रहण की और आत्मा को साधने में मग्न हो गए।

अब, राजमन्त्री का पुत्र पुष्पडाल था, वह बचपन से हो वारिषेण का मित्र था और उसका विवाह अभी कुछ दिन पहले हुआ था; उसकी स्त्री बहुत सुन्दर नहीं थी। एकबार वारिषेण मुनि घूमते-घूमते पुष्पडाल के यहाँ पहुँचे और पुष्पडाल ने विधिपूर्वक आहारदान दिया। इस अवसर पर अपने मित्र को धर्म प्राप्त कराने की भावना मुनिराज को जागृत हुई। आहार करके मुनिराज वन की ओर जाने लगे, विनयवश पुष्पडाल भी उनके पोछे-पीछे गया। कुछ दूर चलने के बाद उसको ऐसा लगा कि अब मुनिराज मुझे रुकने को कहें और मैं घर पर जाऊँ, लेकिन मुनिराज तो चले ही जाते हैं तथा मित्र से कहते ही नहीं कि अब तुम रुक जाओ!

पुष्पडाल को घर पहुँचने की आकुलता होने लगी। उसने मुनिराज को स्मरण दिलाने के लिए कहा कि बपचन में हम इस तालाब और आम के पेड़ के नीचे साथ खेलते थे, यह वृक्ष गाँव से दो-तीन मील दूर है, हम गाँव से बहुत दूर आ गए हैं।

यह सुनकर भी वारिषेण मुनि ने उसे रुक जाने को नहीं कहा। अहा! परम हितैषी मुनिराज, मोक्षमार्ग को छोड़कर संसार जाने कैसे कहें? मुनिराज की तो वहीं भावना है कि मेरा मित्र भी मोक्षमार्ग में मेरे साथ हो आये-

हे सखा, चल न हम साथ चलें मोक्ष में, 

छोड़े परभाव को झूलें आनन्द में;

जाऊँ में अकेला और तुझे छोड दूँ?

चल न तू भी मेरे साथ ही मोक्ष में।

अहा, मानों अपने पीछे पीछे चलने वाले को मोक्ष में ले जा रहे हों- इस प्रकार परम निस्पृहता से मुनि तो आगे ही आगे चले जा हैं। पुष्पडाल भी सङ्कोचवश उनके पीछे-पीछे चला जा रहा है। 

चलते-चलते वे आचार्य महाराज के पास पहुँचे और वारिषेण- मुनि ने कहा- प्रभो। यह मेरा बचपन का मित्र है, और  संसार से विरक्त होकर आपके पास दीक्षा लेने आया है। आचार्य महाराज ने उसे निकट भव्य जानकर दीक्षा दे दी। अहा, सच्चा मित्र तो वही है जो जीव को भव-समुद्र से पार करे।

मित्र के आग्रहवश पुष्पडाल यद्यपि मुनि हो गया और बाह्य में मुनि के योग्य क्रियायें भी करने लगा, परन्तु उसका चित्त अभी भी संसार से छूटा न था। भावमुनिपना अभी उसे नहीं हुआ था; प्रत्येक क्रिया करते समय उसे अपने घर की याद आती थी। सामायिक करते समय भी बार-बार उसे अपनी पत्नी का स्मरण होता था। वारिषेणमुनि उसके मन को स्थिर करने के लिए उसके साथ ही रहकर उसे निरन्तर उत्तम ज्ञान-वैराग्य का उपदेश देते थे, परन्तु पुष्पडाल का मन अभी धर्म में स्थिर नहीं हुआ था।

ऐसा करते-करते 12 वर्ष बीत गए। एकबार वे दोनों मुनिवर महावीर भगवान के समवसरण में बैठे थे, उस समय इन्द्रों ने भगवान को स्तुति करते हुए कहा कि हे नाथ! इस राज पृथ्वी को छोड़कर आप मुनि हुए, जिससे पृथ्वी अनाथ होकर आपके विरह में झूरती है और उसके आँसू इस नदी के रूप में बह रहे हैं। अहा! इन्द्र ने तो स्तुति द्वारा भगवान के वैराग्य की स्तुति की लेकिन जिसका चित्त अभी वैराग्य में नहीं लगा था, उस पुष्पडाल को तो वह श्लोक सुनकर ऐसा लगा कि अरे। मेरी स्त्री भी इस पृथ्वी की भाँति 12 वर्ष से मेरे बिना दुःखी होती होगी। मैंने बारह वर्ष से उसका मुँह भी नहीं देखा, मुझे भी उसके बिना चैन नहीं पड़ता; इसलिए चलकर उसकी खबर ले आऊँ। कुछ समय और उसके साथ रहकर फिर दीक्षा ग्रहण कर लूँगा।

ऐसा विचारकर पुष्पडाल तो किसी से पूछे-ताछे बिना घर की ओर चल दिया। वारिषेण मुनि उसकी गतिविधि को समझ गये; हृदय में मित्र के प्रति धर्मवात्सल्य की भावना जागृत हुए कि किसी प्रकार मित्र को धर्म में स्थिर करना चाहिए। ऐसा विचार कर वह भी उसके साथ चल दिए, और उसे साथ लेकर अपने राजमहल में आये।

मित्रसहित अपने पुत्र को महल में आया देखकर चेलना रानी को आश्चर्य हुआ कि क्या वारिषेण, मुनिदशा का पालन न कर सकने से वापिस आया है। ऐसा उन्हें सन्देह हुआ। उसकी परीक्षा के लिए एक सोने का आसन और एक लकड़ी का आसन रखा, लेकिन वैरागी वारिषेणमुनि तो वैराग्यपूर्वक लकड़ी के आसन पर बैठ गये। इससे विचक्षण चेलनादेवी समझ गयी कि पुत्र का मन तो वैराग्य में दृढ़ है, उसके आगमन का अन्य कोई प्रयोजन होगा।

वारिषेणमुनि के आगमन से गृहस्थाश्रम में रही हुईं 32 रानियाँ उनके दर्शन करने को आयी। राजमहल का अद्भुत वैभव और ऐसी सुन्दर 32 रानियों को देखकर पुष्पडाल तो आश्चर्य में पड़ गया, कि अरे! ऐसा राजवैभव और ऐसी 32 रानियों के होने पर भी राजकुमार उनकी ओर देखते ही नहीं। उनका त्याग कर देने के बाद उनका स्मरण भी नहीं करते। आत्मसाधना में अपना चित्त जोड़ दिया है। वाह, धन्य है इन्हें! और मैं एक साधारण स्त्री का मोह भी नहीं छोड़ सकता। अरे! मेरा बारह वर्ष का साधुपना व्यर्थ गया।

वारिषेणमुनि ने पुष्पडाल से कहा- हे मित्र! अब भी तुझे संसार का मोह हो तो तू यहीं रुक जा और इस वैभव का उपभोग कर । अनादि काल से जिस संसार को भोगते हुए तृप्ति न हुयी, उसे तू अब भी भोगना चाहता है, तो ले, तू इस सबका उपभोग कर। वारिषेणमुनि की बात सुनकर पुष्पडाल अत्यन्त लज्जित हुआ, उसकी आँखें खुल गई और उसकी आत्मा जागृत हो गयी।

राजमाता चेलना सब परिस्थत्ति समझ गई और पुष्पडाल को धर्म में स्थिर करने हेतु बोली अरे मुनिराज । आत्म साधना का ऐसा अवसर बारम्बार प्राप्त नहीं होता; इसलिए तुम अपना चित्त मोक्षमार्ग में लगाओ। यह सांसारिक भोग तो इस जीव ने अनन्त बार भोगे हैं, इनमे किञ्चित् सुख नहीं है; इसलिए इनका मोह छोड़कर मुनिधर्म में अपने चित्त को स्थिर करो।

वारिषेण मुनिराज ने भी ज्ञान वैराग्य का सुन्दर उपदेश दिया और कहा कि हे मित्र! अब अपने चित्त को आत्मा की आराधना में दृढ़ करो और मेरे साथ मोक्षमार्ग में चलो।

पुष्पडाल ने कहा- प्रभो! आपने मुझे मुनिधर्म से डिगते हुए बचाया है, और सच्चा बोध देकर मोक्षमार्ग में स्थिर किया है। अत:आप सच्चे मित्र है। आपने धर्म में स्थितिकरण करके महान उपकार किया है। अब मेरा मन सांसारिक भोगों से वास्तव में उदास होकर आत्मा के रत्नत्रयधर्म की आराधना में स्थिर हुआ है। अब मुझे स्वप्न में भी इस संसार की इच्छा नहीं है। अब तो अन्तर में लीन होकर आत्मा के चैतन्यवैभव की साधना करूंगा।

इस प्रकार प्रायश्चित करके पुष्पडाल फिर से मुनिधर्म में स्थिर हुआ और दोनों मुनि, वन की ओर चल दिए।

(वारिषेण मुनिराज की कथा हमें ऐसी शिक्षा देती है कि- कोई भी साधर्मी-धर्मात्मा कदाचित् शिथिल होकर धर्ममार्ग से डिगता हो तो उसका तिरस्कार न करके, प्रेमपूर्वक उसे धर्ममार्ग में स्थिर करना चाहिए। सर्व प्रकार से उसकी सहायता करनी चाहिए। धर्म का उल्लास जागृत करके, जैनधर्म की महिमा समझाकर या वैराग्य द्वारा उसे धर्म में स्थिर करना चाहिए। तथा अपने आत्मा को भी धर्म में विशेष-विशेष स्थिर करना चाहिए। कैसी भी प्रतिकूलता आये परन्तु धर्म से नहीं डिगना।)