Posted on 16-Dec-2020 08:15 PM
आदिम तीर्थंकर प्रभो, आदिनाथ मुनिनाथ।
आधि व्याधि अघ मद मिटे, तुम पद में मम माथ॥
शरण चरण हैं आपके, तारण तरण जहाज।
भवदधि तट तक ले चलो,करुणाकर जिनराज ॥1॥
जित-इन्द्रिय जित-मद बने, जित-भवविजित-कषाय।
अजित-नाथ को नित नमूँ, अर्जित दुरित पलाय॥
कोंपल पल-पल को पले, वन में ऋतु-पति आय।
पुलकित मम जीवन-लता, मन में जिन पद पाय ॥2॥
तुम-पद-पंकज से प्रभो, झर-झर-झरी पराग।
जब तक शिव-सुख ना मिले, पीऊँ षटपद जाग॥
भव-भव, भव-वन भ्रमित हो, भ्रमता-भ्रमता आज।
संभव-जिन भव शिव मिले, पूर्ण हुआ मम काज ॥3॥
विषयों को विष लख तजूँ, बनकर विषयातीत।
विषय बना ऋषि ईश को, गाऊँ उनका गीत॥
गुण धारे पर मद नहीं, मृदुतम हो नवनीत।
अभिनन्दन जिन! नित नमूँ, मुनि बन मैं भवभीत ॥4॥
सुमतिनाथ प्रभु सुमति हो, मम मति है अति मंद।
बोध कली खुल-खिल उठे, महक उठे मकरन्द॥
तुम जिन मेघ मयूर मैं, गरजो बरसो नाथ।
चिर प्रतीक्षित हूँ खड़ा, ऊपर करके माथ ॥5॥
शुभ्र-सरल तुम, बाल तव, कुटिल कृष्ण-तम नाग।
तव चिति चित्रित ज्ञेय से, किन्तु न उसमें दाग॥
विराग पद्मप्रभ आपके, दोनों पाद-सराग।
रागी मम मन जा वहीं, पीता तभी पराग ॥6॥
अबंध भाते काटके, वसु विध विधिका बंध।
सुपार्श्व प्रभु निज प्रभु-पना, पा पाये आनंद॥
बांध-बांध विधि-बंध मैं, अंध बना मति-मन्द।
ऐसा बल दो अंध को, बंधन तोडूँ द्वन्द ॥7॥
चंद्र कलंकित, किन्तु हो, चंद्र प्रभ अकलंक।
वह तो शंकित केतु से, शंकर तुम निःशंक॥
रंक बना हूँ मम अतः, मेटो मनका पंका।
जाप जपूँ जिन-नाम का, बैठ सदा पर्यंक ॥8॥
सुविधि! सुविधि के पूर हो, विधि से हो अति दूर।
मम मन से मत दूर हो, विनती हो मंजूर॥
बाल मात्र भी ज्ञान ना, मुझमें मैं मुनि-बाल।
वबाल भवका मम पिटे, प्रभु-पद में मम भाल ॥9॥
शीतल चन्दन है नहीं, शीतल हिम ना नीर।
शीतल जिन तब मत रहा, शीतल हस्ता पीर॥
सुचिर काल से में रहा, मोह-नींद से सुप्त।
मुझे जगा कर, कर कृपा, प्रभो करो परितृप्त ॥10॥
अनेकान्त की कान्ति से, हटा तिमिर एकान्त।
नितान्त हर्षित कर दिया, क्लान्त विश्व को शान्त॥
निःश्रेयस सुख धाम हो, हे जिनवर श्रेयांस।
तव थुति अविरल मैं करूँ, जब लौं घट में श्वास ॥11॥
वसुविध मंगल द्रव्य ले, जिन पूजो सागार।
पाप-घटे फलत: फले, पावन पुण्य अपार॥
बिना द्रव्य शुचि भाव से, जिन पूजों मुनि लोग।
बिन निज शुभ उपयोग के, शुद्ध न हो उपयोग ॥12॥
कराल काला व्याल सम, कुटिल चाल का काल
जीत लिया तुमने उसे, हो गए आप निहाल॥
मोह असल वश समल बन, निर्बल मैं भयवान।
विमलनाथ तुम अमल हो, संबल दो भगवान् ॥13॥
अनन्त गुण पा कर दिया, अनन्त भव का अन्त।
अनन्त सार्थक नाम तव, अनन्त जिन जयवंत॥
अनन्त सुख पाने सदा, भव से हो भयवन्त।
अंतिम क्षण तक मैं तुम्हे, स्मरू स्मरे सब सन्त ॥14॥
दया धर्म वर धर्म है, अदया-भाव अधर्म।
अधर्म तज प्रभु धर्म ने, समझाया पुनि धर्म॥
धर्मनाथ को नित नमूं, सधे शीघ्र शिव शर्म।
धर्ष-मर्म को लख सकूँ, मिटे मलिन मम कर्म ॥15॥
शान्तिनाथ हो शान्त कर, सातासाता सान्त
केवल, केवल-ज्योतिमय, क्लान्ति मिटी सब ध्वांत॥
सकल ज्ञान से सकल को, जान रहे जगदीश
विकल रहे जड़ देह से, विमल नमूं नत शीश ॥16॥
ध्यान-अग्नि से नष्ट कर, प्रथम पाप परिताप।
कुंथुनाथ पुरुषार्थ से, बने न अपने आप॥
ऐसी मुझ पै हो कृपा, मम मन मुझ में आया
जिस विध पल यें लवण है जल में घुल मिल जाय ॥17॥
नाम मात्र भी नहि रखों, नाम-काम से काम
ललाम आतम में करो, विराम आठों चाम॥
नाम धरो अर नाम तव, अतः स्मरू अविराम।
अनाम बन शिवधाम में, काम बनूँ कृत-काम ॥18॥
मोहमल्ल को मार कर, मल्लि नाथ जिनदेव।
अक्षय बनकर पा लिया, अक्षय सुख स्वयमेव॥
बाल ब्रह्मचारी विभो, बाल समान विराग।
किसी वस्तु से राग ना, मम तव पद से राग ॥19॥
मुनि बन मुनिपन में निरत, हो मुनि यति बिन स्वार्थ।
मुनिव्रत का उपदेश दे, हमको किया कृतार्थ॥
यही भावना मम रही, मुनिव्रत पाल यथार्थ।
मैं भी मुनिसुव्रत बनूँ, पावन पाय पदार्थ ॥20॥
अनेकान्त का दास हो, अनेकान्त की सेव।
करूँ गहूँ मैं शीघ्र से, अनेक गुण स्वयमेव॥
अनाथ मैं जगनाथ हो, नमीनाथ दो साथ।
तव पद में दिन-रात हूँ, हाथ जोड़ नत-माथ ॥21॥
नील गगन में अधर हो, शोभित निज में लीन।
नील कमल आसीन हो, नीलम से अति नील॥
शील झील में तैरते, नेमि जिनेश सलील।
शील डोर मुझ बांध दो, डोर करो मत ढील ॥22॥
खास दास की आस बस, श्वाँस-श्वाँस पर वास।
पार्श्व करो मत दास को, उदासता का दास॥
ना तो सुर-सुख चाहता, शिव-सुख की ना चाह।
तव थुति-सरवर में सदा, होवे मम अवगाह ॥23॥
नीर-निधि से धीर हो, वीर बने गंभीर।
पूर्ण तैर कर पा लिया, भव सागर का तीर॥
अधीर हूँ मुझे धीर दो, सहन करूँ सब पीर।
चीर-चीर कर चिर लखू अन्तर की तस्वीर ॥24॥
Good job🙏🙏👍👍👍
by Satyam jain at 08:29 PM, Dec 31, 2021
🙏
by Admin at 05:08 PM, Mar 31, 2022