Posted on 06-Jul-2020 02:38 PM
वीर शासन जयंती
इस शुभ दिन पर श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को श्री वीर प्रभु की दिव्य देशना 66 दिनों के अंतराल के बाद विपुलाचल पर्वत पर समवशरण के मध्य खिरी थी।
दीक्षा लेने के बाद महावीर स्वामी ने मौन व्रत अंगीकार किया। बारह वर्ष की तपस्या के बाद ऋजुकूला नदी के तट पर शुक्ल ध्यान पूर्वक केवलज्ञान प्राप्त किया। उसी समय इंद्र की आज्ञा से कुबेर ने समवशरण की रचना की। लेकिन 66 दिन तक प्रभू की वाणी नही खिरी। इंद्र ने अवधि ज्ञान से यह जाना कि यहां गणधर का अभाव है। गणधर होने की योग्यता इंद्रभूति गौतम मे है, ऐसा जानकर युक्ति पूर्वक श्लोक का अर्थ पूछा।
इंद्रभूति गौतम ने श्लोक का अर्थ तो उस समय नहीं बताया लेकिन महावीर प्रभु के समवशरण मे अपने 500 शिष्यों सहित पधार गये और वहां समवशरण की अद्भुत रचना एवं मानस्तंभ को देखते ही उनका मान गलित हो गया। उसी समय इंद्रभूति गौतम ने जैनेश्वरी दीक्षा धारण की और अनेक प्रकार से महावीर स्वामी की स्तुति की।
उन्हे गणधर पद की प्राप्ति हुई और वे प्रथम गणधर कहलाये। उसी समय 18 महाभाषा और 700 लघुभाषा सहित दिव्य ध्वनि खिरने लगी। गणधर गौतम स्वामी ने अंतर्मुहूर्त मे द्वादशांग रूप जिनवाणी की रचना की।
वीर शासन का अर्थ -
1-वीरशासन अर्थात आनंद बाँटने वाला शासन।
2-वीरशासन अर्थात अलिखित सिद्धांत।
3-वीरशासन अर्थात आत्मानुशासन।
4-वीरशासन अर्थात भक्त नहीं, भगवान बनाने वाला शासन।
5-वीरशासन अर्थात सबको भगवान बताने वाला शासन।
6-वीरशासन अर्थात स्वाधीन करने वाला शासन।
7-वीरशासन अर्थात सत्य स्वरूप को दर्शाने वाला शासन।
8-वीरशासन अर्थात बांधने नहीं, मुक्त करने वाला शासन।
9-वीरशासन अर्थात अणु-अणु की स्वतंत्रता को दर्शाने वाला शासन।
10-वीरशासन अर्थात दुखी नहीं, सुखी करने वाला शासन।
11-वीरशासन किसी ने बनाया नहीं है, मात्र बताया है।
12-वीरशासन अर्थात अलंघ्य शासन।
13-वीरशासन अर्थात वीरों का शासन कायरों का नहीं।
14-वीरशासन अर्थात सर्वोदयी शासन।
15-वीरशासन अर्थात अहिँसा को दर्शाने वाला शासन।
प्रतिवर्ष वीर शासन जयन्ती को मनाते समय भगवान महावीर सर्वोदय तीर्थ की भावना को हृदय में अंकित कर उनकी वाणी का घर-घर में प्रचार और प्रसार करने का सतत यत्न करना प्रत्येक सत्पुरूष का कर्तव्य है, क्योंकि भगवान के इष्ट शासन से यथेष्ट द्धेष रखने वाला मनुष्य भी यदि समदृष्टि वाला होकर मात्सर्य के त्याग पूर्वक युक्तिसंगत समाधान की दृष्टि से उनके इष्ट शासन का अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मानश्रृंग खण्डित हो जाता है, सर्वथा एकान्त रूप मिथ्यामत का आग्रह छूट जाता है और वह अभद्र होने पर भी सब ओर से भद्र बन जाता है।
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