अध्यात्म-दोहावली



 

जीवन समझो मोल है, ना समझो तो खेल।

खेल खेल में युग गया, वही खिलाड़ी खेल ॥1॥

 

खेल सको तो खेल लो, एक अनोखा खेल।

आप खिलाड़ी आप ही, बनो खिलौना खेल ॥2॥

 

किस-किस का कर्ता बनूँ, किस-किस का मैं कार्य।

किस-किस का कारण बनूँ, यह सब क्यों कर आर्य ॥3॥

 

पर का कर्ता मैं नहीं, मैं क्यों पर का कार्य।

कर्ता कारण कार्य हूँ, मैं निज का अनिवार्य ॥4॥

 

घुट-घुट कर क्‍यों जी रहा, लुट लुट कर क्यों दीन।

अन्तर्घट में हो जरा, सिमट सिमट कर लीन ॥5॥

 

खोया जो है अहम में, खोया उसने मोल।

खोया जिसने अहम को, खोजा धन अनमोल ॥6॥

 

यान करे बहरे इधर, उधर यान में शांत।

कोरा कोलाहल यहाँ, भीतर तो एकांत ॥7॥

 

स्वर्ण बने वह कोयला, और कोयला स्वर्ण।

पाप-पुण्य का खेल है, आतम में ना वर्ण ॥8॥

 

प्रमाण का आकार ना, प्रमाण में आकार।

प्रकाश का आकार ना, प्रकाश में आकार ॥9॥

 

जिनवर आँखें अधखुली, जिनमें झलके लोक।

आप दिखे सब देख ना, स्वस्थ रहे उपयोग ॥10॥

 

अलख जगाकर देख ले, विलख विलख मत हार।

निरख निरख निज को जरा, हरख हरख इस बार ॥11॥

 

कर्तापन की गंध बिन, सदा करे कर्तव्य।

स्वामीपन ऊपर धरे, ध्रुव पर हो मन्तव्य ॥12॥

 

चेतन में ना भार है, चेतन की ना छाँव।

चेतन की फिर हार क्‍यों, भाव हुआ दुर्भाव ॥13॥

 

धन जब आता बीच में, वतन सहज हो गौण।

तन जब आता बीच में, चेतन होता मौन ॥14॥

 

फूल राग का घर रहा, काँटा रहा विराग।

तभी फूल का पतन हो, राग त्याग तू जाग ॥15॥

 

मोह दुखों का मूल है, धर्म सुखों का स्त्रोत।

मूल्य तभी पीयूष का, जब हो विष से मौत ॥16॥

 

पर घर में क्यों घुस रही, निज घर तज यह भीड़।

पर नीड़ो में कब घुसा, पंछी तज निज चीड़ ॥17॥

 

विषय-विषम विष है सुनो, विष सेवन से मौत।

विषय-कषाय विसार दो, स्वानुभूति सुख स्त्रोत ॥18॥

 

हल्का लगता जल भरा, घट भी जल में जान।

दुख सुख सा अनुभूत हो, हो जब आतम ज्ञान ॥19॥

 

कुन्दकुन्द को नित नमूँ, हृदय कुन्द खिल जाय।

परम सुगन्धित महक में, जीवन मम घुल जाये ।20॥