Posted on 19-Dec-2020 08:02 PM
ना बदलकर भी बदलना…
(डाॅ. हुकमचन्द भारिल्ल)
रे असंयोगी तत्व में संयोग कुछ करते नहीं।
संयोग भी तो सुनिश्चित हैं कहा जिनवरदेव ने।।
अपने सुनिश्चित योग में वे भी निरन्तर बदलते।
नित निरन्तर ही बदलना उनका सहज परिणाम है ।।१।।
यद्यपि वे नित्य बदलें निरन्तर बदला करें।
सुनिश्चित परिणमन उनका स्वयं का सर्वस्व है।।
तेरे किये कुछ नहीं होता उनके सहज परिणमन में।
उनके सहज परिणमन में और गमनागमन में ।।२।।
द्रव्य से द्रव्यान्तर ना पलटना है जिस तरह।
नित बदलना भी उसतरह उनकी सहज सम्पत्ति है।।
ना बदल कर भी बदलना होता निरन्तर नित्य ही।
बदलकर भी ना बदलना भी सहज परिणाम है ।।३।।
बदलकर भी ना बदलना बिना बदले बदलना।
रे बदलना ना बदलना यह वस्तु का परिणमन है।।
अपेक्षा को समझना ही एकमात्र उपाय है।
नहीं समझी अपेक्षा तो उलझना ही नियति है ।।४।।
यदि चाहते हो सुलझना तो अपेक्षा पर ध्यान दो।
अपेक्षा समझे बिना तुम पार पा सकते नहीं।
स्याद्वादी जैनियों की स्याद्वादी पद्धति।
को समझना ही समझ लो बस एकमात्र उपाय है ।।५।।
ना बदलकर बदला करे या नहीं बदले बदलकर।
बदले न बदले जो भी हो हमको बतायें क्या करें ।।
पर जो भी बदलाबदल हो उसमें हमारा भी चले।
बस बात इतनी ही है इससे अधिक हम क्या कहें? ।।६।।
इस जगत का सब परिणमन इकदम सुनिश्चित जानिये।
बदलने की भावना इकदम असंभव मानिये।।
ऐसी असंभव भावना मिथ्यात्व है अज्ञान है।
जिनदेव का ऐसा कथन यह सभी मिथ्याज्ञान है ।।७।।
इक द्रव्य का अन्य द्रव्य में चलता नहीं कुछ रंच भी।
यह कथन है जिनदेव का इसमें न अन्तर रंच भी।।
यह अटल सिद्धांत है इसमें किसी का क्या चले?
है ठीक इस सिद्धांत के अनुकूल अपना मन बने ।।८।।
वस्तु के परिणमन में थोड़ा हमारा भी चले।
यह भावना अज्ञान है अज्ञान से हम सब बचें।।
इस भावना की पूर्ति तो तेरी कभी होगी नहीं।
त्याग ऐसी भावना सन्मार्ग पर हम सब चलें ।।९।।
पर्याय का परिणमन आया सहज केवलज्ञान में।
स्वीकारना ही धर्म है यह बात रखिये ध्यान में।।
यदी हो स्वीकार तो बस पार बेड़ा जानिये।
अत: अन्तर्भाव से स्वीकार होना चाहिये ।।१०।।
( दोहा )
परम सत्य की स्वीकृति अन्तर्मन से होय।
तो इस आतमराम को रे अनंतसुख होय ।।११।।
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