Posted on 23-Jun-2020 04:34 PM
(पद्यानुवाद - क्षुल्लक ध्यान सागर)
मेरा आतम सब जीवों पर मैत्री भाव करे,
गुणगणमंडित भव्य जनों पर प्रमुदित भाव धरे |
दीन दुखी जीवों पर स्वामी! करुणाभाव करे,
और विरोधी के ऊपर नित समताभाव धरे ||1||
तुम प्रसाद से हो मुझमे वह शक्ति नाथ! जिससे,
अपने शुद्ध अतुल बलशाली चेतन को तन से |
पृथक कर सकूं पूर्णतया मैं जो योद्धा रण में,
खीचें निज तलवार म्यान से रिपु सन्मुख क्षण में ||2||
छोड़ा है सब में अपनापन मैंने मन मेरा
बना रहे नित सुख में दुःख में समता का डेरा |
शत्रु-मित्र में, मिलन-विरह में, भवन और वन में
चेतन को जाना न पड़े फिर नित नूतन तन में ||3||
अंधकार नाशक दीपक-सम अडिग चरण तेरे,
अहो! विराजे रहें हमेशा उर ही में मेरे |
हों मुनीश! वे घुले हुए से या कीलित जैसे,
अथवा खुदे हुए से हों या प्रतिबिम्ब जैसे ||4||
हो प्रमाद वश जहाँ-तहां यदी मैंने गमन किया,
एकेंद्रिय आदिक जीवों को घायल बना दिया |
पृथक किया हो या भिड़ा दिया हो अथवा दबा दिया,
मिथ्या हो दुष्कृत वह मेरा प्रभुपद शीश किया ||5||
चल विरुद्ध शिव-पथ के मैंने जो दुर्मति होके,
होके वश में दुष्ट इन्द्रियों और कषायों के |
खंडित को जो चरित्र-शुद्धी वह दुष्कृत निष्फल हो,
मेरा मन भी दुर्भावों को तजकर निर्मल हो ||6||
मन्त्र शक्ति से वैद्य उतारे ज्यों अहि-विष सारा,
त्यों अपनी निंदा-गर्हा वा आलोचन द्वारा |
मन वच तन से कषाय से संचित अघ भारी,
भव दुःख के कारण नष्ट करूं मैं होकर अविकारी ||7||
धर्म-क्रिया में मुझे लगा जो कोई अघकारी,
अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार या अनाचार भारी |
कुमति, प्रमाद-निमित्तक उसका प्रतिक्रमण करता,
प्रायश्चित्त बिना पापों को कौन कहाँ हरता? ||8||
चित्त शुद्धी की विधि की क्षति को अतिक्रमण कहते,
शीलबाड़ के उल्लंघन को व्यतिक्रमण कहते |
त्यक्त विषय के सेवन को प्रभु! अतीचार कहते,
विषयासक्तपने को जग में अनाचार कहते ||9||
शास्त्र पठन में मेरे द्वारा यदि जो कहीं- कहीं,
प्रमाद से कुछ अर्थ, वाक्य, पद, मात्रा छुट गयी |
सरस्वती मेरी उस त्रुटी को कृपया क्षमा करें,
और मुझे कैवल्यधाम में माँ अविलम्ब धरे ||10||
वांछित फलदात्री चिंतामणि सदृश मात! तेरा,
वंदन करने वाले मुझको मिले पता मेरा |
बोधि, समाधि, विशुद्ध भावना, आत्मसिद्धि मुझको,
मिले और मैं पा जाऊं माँ! मोक्ष-महासुख को ||11||
सब मुनिराजों के समूह भी जिनका ध्यान करें,
सुरों-नरों के सारे स्वामी जिन गुणगान करें |
वेद, पुराण, शास्त्र भी जिनके गीतों के डेरे,
वे देवों के देव विराजें उर में ही मेरे ||12||
जो अनंत-दृग-ज्ञान-स्वरूपी सुख-स्वभाव वाले,
भव के सभी विकारों से भी जो रहे निराले |
जो समाधि के विषयभूत हैं परमातम नामी,
वे देवों के देव विराजें मम उर में स्वामी ||13||
जो भव दुःख का जाल काट कर उत्तम सुख वरते,
अखिल विश्व के अंत: स्थल का अवलोकन करते |
जो निज में लवलीन हुए प्रभु ध्येय योगियों के,
वे देवों के देव विराजें मम उर के होके ||14||
मोक्षमार्ग के जो प्रतिपादक सब जग उपकारी
जन्म मरण के संकट आदि से रहित निर्विकारी |
त्रिलोकदर्शी दिव्य-शरीरी सब कलंकनाशी
वे देवों के देव रहें मम उर में अविनाशी ||15||
आलिंगित हैं जिनके द्वारा जग के सब प्राणी
वे रागादिक दोष न जिनके सर्वोत्तम ध्यानी |
इन्द्रिय-रहित परम-ज्ञानी जो अविचल अविनाशी
वे देवों के देव रहें मम उर के ही वासी ||16||
जग-कल्याणी परिणिति से जो व्यापक गुण-राशि,
भावी-सिद्ध, विबुद्ध, जिनेश्वर, कर्म-पाश-नाशी |
जिसने ध्येय बनाया उसके सकल-दोष-हारी,
वे देवों के देव रहें मम उर में अविकारी ||17||
कर्म कलंक दोष भी जिनको न छू पाते,
ज्यों रवि के सन्मुख न कभी तम समूह आते |
नित्य निरंजन जो अनेक हैं और एक भी हैं,
उन अरहंत देव की मैंने सुखद शरण ली है ||18||
जगतप्रकाश जिनके रहते सूर्य प्रभाधारी,
किंचित भी ना शोभा पाता जिनवर अविकारी |
निज आतम में हैं जो सुस्थित ज्ञान-प्रभाशाली,
उन अरहंत देव की मैंने सुखद शरण पा ली ||19||
जिनका दर्शन पा लेने पर प्रकट झलक आता,
अखिल विश्व से भिन्न आतमा जो शाश्वत ज्ञाता |
शुद्ध, शांत, शिवरूप आदि या अंतविहीन बली,
उन अरिहंत देव की मुझको अनुपम शरण मिली ||20||
जो मद, मदन, ममत्व, शोक, भय, चिंता, दुःख, निद्रा,
जीत चुके हैं निज-पौरुष से कहती जिन-मुद्रा |
ज्यों दावानल तरु-समूह को शीघ्र जला देता,
उन अरिहंत देव की मैं भी सुखद शरण लेता ||21||
ना पलाल पाषाण न धरती हैं संस्तर कोई,
न विधिपूर्वक रचित काठ का पाटा भी कोई |
कारण, इन्द्रिय वा कषाय रिपु जीते जो ध्यानी,
उसका आतम ही शुचि-संस्तर माने सब ज्ञानी ||22||
ना समाधि का साधन संस्तर न ही लोक पूजा,
ना मुनि-संघों का सम्मेलन या कोई दूजा |
इसलिए हे भद्र! तुम सदा आत्मलीन बनो,
तज बाहर की सभी वासना कुछ ना कहो-सुनो ||23||
पर-पदार्थ कोई ना मेरे थे, होंगे, ना हैं,
और कभी उनका त्रिकाल में हो पाउँगा मैं |
ऐसा निर्णय करके पर के चक्कर को छोड़ो,
स्वस्थ रहो नित भद्र! मुक्ति से तुम नाता जोड़ो ||24||
तुम अपने में अपना दर्शन करने वाले हो,
दर्शन-ज्ञानमयी शुद्धात्म पर से न्यारे हो |
जहाँ कहीं भी बैठे मुनिवर अविचल मन-धारी,
वहीँ समाधि लगे उनकी जो उनको अति-प्यारी ||25||
नित एकाकी मेरे आतम नित अविनाशी है,
निर्मल दर्शन ज्ञान-स्वरूपी स्व-पर-प्रकाशी है |
देहादिक या रागादिक जो कर्म जनित दिखते,
क्षणभंगुर हैं वे सब मेरे कैसे हो सकते? ||26||
जहाँ देह से नही एकता जो जीवनसाथी,
वहां मित्र सुत वनिता कैसे हो मेरे साथी |
इस काया के ऊपर से यदी चर्म निकल जाये,
रोमछिद्र तब कैसे इसके बीच ठहर पाए ||27||
भव वन में संयोगों से यह संसारी-प्राणी,
भोग रहा है कष्ट अनेकों कह न सके वाणी |
अतः त्याज्य है मन वच तन से वह संयोग सदा,
उसको, जिसको इष्ट हितैषी मुक्ति विगत विपदा ||28||
भव वन में पड़ने के कारण हैं विकल्प सारे,
उनका जाल हटाकर पहुचों शिवपुर के द्वारे |
अपने शुद्धातम का दर्शन तुम करते-करते,
लीन रहो परमात्म तत्व में दुखों को हरते ||29||
किया गया जो कर्म पूर्व भव में स्वयं जीव द्वारा,
उसका ही फल मिले शुभाशुभ अन्य नहीं चारा |
औरों के कारण यदि प्राणी सुख-दुःख को पाता,
तो निज-कर्म अवश्य स्वयं ही निष्फल हो जाता ||30||
अपने अजित कर्म बिना इस प्राणी को जग में,
कोई अन्य न सुख-दुःख देता कहीं किसी डग पे |
ऐसा अडिग विचार बना कर तुम निज को मोड़ो,
“अन्य मुझे सुख-दुःख देता है” ऐसी हठ छोड़ो ||31||
परमातम सबसे न्यारे हैं, अतिशय अविकारी,
संत अमितगति से वन्दित हैं शम दम समधारी |
जो भी भव्य मनुज प्रभुवर को नित उर में लाते,
वे ही निश्चित उत्तम वैभव मोक्ष महल पाते ||32||
दोहा
जो ध्याता जगदीश को, ले यह पद बत्तीस |
अचल-चित्त होकर वही, बने अचलपद ईश ||33||
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