गोमटेश अष्टक (ज्ञानोदय छन्द )



(लय-मेरी भावना)

नील कमल के दल-सम जिन के युगल-सुलोचन विकसित हैं,

शशि-सम मनहर सुख कर जिनका मुख-मण्डल मृदु प्रमुदित है।

चम्पक की छवि शोभा जिनकी नम्र नासिका ने जीती,

गोमटेश जिन-पाद-पद्म की पराग नित मम मति पीती ॥१॥

 

गोल- गोल दो कपोल जिन के उजल सलिल सम छवि धारे,

ऐरावत-गज की सुण्डा सम बाहुदण्ड उज्वल-प्यारे।

कन्धों पर आ, कर्ण-पाश वे नर्तन करते नन्दन हैं,

निरालम्ब वे नभ-सम शुचि मम गोमटेश को वन्दन है ॥२॥

 

दर्शनीय तव मध्य भाग है गिरि-सम निश्चल अचल रहा,

दिव्य शंख भी आप कण्ठ से हार गया वह विफल रहा।

उन्नत विस्तृत हिमगिरि-सम है स्कन्ध आपका विलस रहा,

गोमटेश प्रभु तभी सदा मम तुम पद में मन निवस रहा ॥३॥

 

विंध्याचल पर चढ़कर खरतर तप में तत्पर हो बसते,

सकल विश्व के मुमुक्षु-जन के शिखामणी तुम हो लसते।

त्रिभुवन के सब भव्य कुमुद ये खिलते तुम पूरण शशि हो,

गोमटेश मम नमन तुम्हें हो सदा चाह बस मन वशि हो ॥४॥

 

मृदुतम बेल लताएँ लिपटीं पग से उर तक तुम तन में,

कल्पवृक्ष हो अनल्प फल दो भवि-जन को तुम त्रिभुवन में।

तुम पद-पंकज में अलि बन सुर-पति गण करता गुन-गुन है,

गोमटेश प्रभु के प्रति प्रतिपल वन्दन अर्पित तन-मन है ॥५॥

 

अम्बर तज अम्बर-तल थित हो दिग अम्बर नहिं भीत रहे,

अंबर आदिक विषयन से अति विरत रहे, भव-भीत रहे।

सर्पादिक से घिरे हुए पर अकम्प निश्चल शैल रहे,

गोमटेश स्वीकार नमन हो धुलता मन का मैल रहे ॥६॥

 

आशा तुम को छू नहिं सकती समदर्शन के शासक हो,

जग के विषयन में वांछा नहिं दोष मूल के नाशक हो।

भरत-भ्रात में शल्य नहीं अब विगत-राग हो रोष जला,

गोमटेश तुममें मम इस विध सतत राग हो, होत चला ॥७॥

 

काम-धाम से धन-कंचन से सकल संग से दूर हुए,

शूर हुए मद मोह-मारकर समता से भर-पूर हुए।

एक वर्ष तक एक थान थित निराहार उपवास किये,

इसीलिए बस गोमटेश जिन मम मन में अब वास किये ॥८॥

 

दोहा

 

नेमीचन्द्र गुरु ने किया प्राकृत में गुण-गान।

गोमटेश थुति अब किया भाषा-मय सुख खान ॥१॥

 

गोमटेश के चरण में, नत हो बारंबार।

विद्यासागर कब बनूँ, भवसागर कर पार ॥२॥