जिनेन्द्र-वंदना



 (रचयिता - डॉ.हुकमचन्द भारिल्ल)

 

(दोहा)

चौबीसों परिग्रह रहित, चौबीसों जिन राज ।

वीतराग सर्वज्ञ जिन, हितकर सर्व समाज ।

 

(हरिगीतिका)

श्री आदिनाथ अनादि मिथ्या मोह का मर्दन किया ।

आनन्दमय ध्रुवधाम निज भगवान का दर्शन किया।

निज आतमा को जानकर निज आतमा अपना लिया।

निज आतमा में लीन हो निज आतमा को पा लिया ।।(1)

 

जिन अजित जीता क्रोध रिपु निज आतमा को जानकर।

निज आतमा पहिचान कर निज आतमा का ध्यान धर।

उत्तम क्षमा की प्राप्ति की बस एक ही है साधना ।

आनन्दमय ध्रुवधाम निज भगवान की आराधना ।।(2)

 

सम्भव असम्भव मान मार्दव धर्ममय शुद्धात्मा ।

तुमने बताया जगत को सब आतमा परमातमा ।

छोटे-बड़े की भावना ही मान का आधार है।

निज आतमा की साधना ही साधना का सार है।।(3)

 

निज आतमा को आतमा ही जानना है सरलता ।

निज आतमा की साधना आराधना है सरलता ।

वैराग्य-जननी नन्दिनी अभिनन्दिनी है सरलता ।

है साधकों की संगिनी आनन्द-जननी सरलता ।।(4)

 

हे सर्वदर्शी सुमति जिन! आनन्द के रसकन्द हो।

हो शक्तियों के संग्रहालय ज्ञान के घनपिण्ड हो।

निर्लोभ हो निर्दोष हो निष्क्रोध हो निष्काम हो ।

हो परम-पावन पतित-पावन शौचमय सुखधाम हो।(5)

 

मानता आनन्द सब जग हास में परिहास में ।

पर आपने निर्मद किया परिहास को परिहास में।

परिहास भी है परिग्रह जग को बताया आपने ।

हे पद्मप्रभ परमातमा, पावन किया जग आपने ।।(6)

 

पारस सुपारस है वही पारस करे जो लोह को ।

वह आतमा ही है सुपारस जो स्वयं निर्मोह हो।

रति-राग वर्जित आतमा ही लोक में आराध्य है।

निज आतमा का ध्यान ही बस साधना है साध्य है।।(7)

 

रति-अरतिहर श्री चन्द्र जिन तुम ही अपूरव चन्द्र हो।

निश्शेष हो निर्दोष हो निर्विघ्न हो निष्कंप हो ।

निकलंक हो अकलंक हो निष्ताप हो निष्पाप हो

यदि हैं अमावस अज्ञजन तो पूर्णमासी आप हो ।।(8)

 

विरहित विविधविधि सुविधि जिन निज आतमा में लीन हो।

हो सर्वगुण सम्पन्न जिन सर्वज्ञ हो स्वाधीन हो।

शिवमग बतावनहार हो शत इन्द्रकरि अभिवन्द्य हो ।

दुख-शोकहर भ्रम-रोगहर सन्तोषकर सानन्द हो।।(9)

 

आपका गुणगान जो जन करें नित अनुराग से।

सब भय भयंकर स्वयं भयकरि भाग जावें भाग से।

तुम हो स्वयंभू नाथ निर्भय जगत को निर्भय किया।

हो स्वयं शीतल मलयगिरि से जगत को शीतल किया।।(10)

 

नरतन विदारन मरन-मारन मलिन भाव विलोक के।

दुर्गन्धमय मलमूत्रमय नरकादि थल अवलोक के।

जिनके न उपजे जुगुप्सा समभाव महल-मसान में।

वे श्रेय श्रेयस्कर शिरि (श्री) श्रेयांस विचरें ध्यान में।।(11)

 

निज आतमा के भान बिन सुख मानकर रति-राग में।

सारा जगत नित जल रहा है वासना की आग में।

तुम वेद-विरहित वेदविद् जिन वासना से दूर हो।

वसुपूज्यसुत बस आप ही आनन्द से भरपूर हो ।।(12)

 

बस आतमा ही बस रहा जिनके विमल श्रद्धान में।

निज आतमा बस एक ही नित रहे जिनके ध्यान में।

सब द्रव्य-गुण-पर्याय जिनके नित्य झलकें ज्ञान में।

वे वेद विरहित विमल जिन विचरें हमारे ध्यान में।।(13)

 

तुम हो अनादि अनन्त जिन तुम ही अखण्डानन्त हो।

तुम वेद विरहित वेदविद् शिवकामिनी के कन्त हो।

तुम सन्त हो भगवन्त हो तुम भवजलधि के अन्त हो।

तुम में अनन्तानन्त गुण तुम ही अनन्तानन्त हो ।।(14)

 

हे धर्म जिन सद्धर्ममय सत् धर्म के आधार हो ।

भवभूमि का परित्याग कर जिन भवजलधि के पार हो।

आराधना आराधकर आराधना के सार हो ।

धरमातमा परमातमा तुम धर्म के अवतार हो ।।(15)

 

मोहक महल मणिमाल मण्डित सम्पदा षट्खण्ड की।

हे शान्ति जिन तृण-सम तजी ली शरण एक अखण्ड की।

पायो अखण्डानन्द दर्शन ज्ञान बीरज आपने ।

संसार पार उतारनी दी देशना प्रभु आपने ।।(16)

 

मनहर मदन तन वरन सुवरन सुमन सुमन-समान ही।

धन-धान्य पूरित सम्पदा अगणित कुबेर-समान थी।

थीं उर्वशी सी अंगनाएँ संगिनी संसार की ।

श्री कुन्थु जिन तृण-सम तजी ली राह भवदधि पार की।।(17)

 

हे चक्रधर! जग जीतकर षट्खण्ड को निज वश किया।

पर आतमा निज नित्य एक अखण्ड तुम अपना लिया।

हे ज्ञानघन अरनाथ जिन! धन-धान्य को ठुकरा दिया।

विज्ञानघन आनन्दघन निज आतमा को पा लिया ।।(18)

 

हे दुपद-त्यागी मल्लिजिन! मन-मल्ल का मर्दन किया।

एकान्त पीड़ित जगत को अनेकान्त का दर्शन दिया।

तुमने बताया जगत को क्रमबद्ध है सब परिणमन।

हे सर्वदशीं सर्वज्ञानी! नमन हो शत-शत नमन ।।(19)

 

मुनिमनहरण श्री मुनीसुव्रत चतुष्पद परित्याग कर।

निजपद विहारी हो गये तुम अपद पद परिहार कर।

पाया परमपद आपने निज आतमा पहिचान कर।

निज आतमा की जानकर निज आतमा का ध्यान धर।।(20)

 

निजपद विहारी धरमधारी धर्ममाय धरमातमा ।

निज आतमा को साध पाया परमपद परमातमा ।

हे यान-त्यागी नमी! तेरी शरण में मम आतमा ।

तूने बताया जगत को सब आतमा परमातमा ।।(21)

 

आसन बिना आसन जमा गिरनार पर घनश्याम तन ।

सद्बोध पाया आपने जग को बताया नेमि जिन।

स्वाधीन है प्रत्येक जन स्वाधीन है प्रत्येक कन ।

परद्रव्य से है पृथक् पर हर द्रव्य अपने में मगन ।।(22)

 

तुम हो अचेलक पार्श्वप्रभु ! वस्त्रादि सब परित्याग कर।

तुम वीतरागी हो गये रागादिभाव निवार कर।

तुमने बताया जगत को प्रत्येक कण स्वाधीन है।

कर्ता न धर्ता कोई है अणु-अणु स्वयं में लीन है।।(23)

 

हे पाणिपात्री वीर जिन! जग को बताया आपने ।

जग-जाल में अबतक फँसाया पुण्य एवं पाप ने।

पुण्य एवं पाप से है पार मग सुख-शान्ति का।

यह धर्म का है मरम यह विस्फोट आतम क्रान्ति का।।(24)

 

(सोरठा)

पुण्य-पाप से पार, निज आतम का धर्म है।

महिमा अपरम्पार, परम अहिंसा है यही ।