अष्ट प्रातिहार्य का स्वरुप



अष्ट प्रातिहार्य क्या है

जिनेन्द्रदेव की मूर्ति के साथ अष्ट मंगल या अष्टप्रातिहार्यों का अंकन पारंपरिक रूप से होता रहा है। प्रस्तुत आलेख में शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर अष्ट मंगलों का स्वरूप विवेचित किया गया है।

प्राचीन काल से जैन मंदिरों में अष्ट मंगल प्रातिहार्य का जिन प्रतिमाओं के साथ अंकन होता आ रहा है। अष्ट मंगल प्रातिहार्य मंगल स्वरूप बनाये जाते हैं। जिनेन्द्र भगवान की समवशरण स्थली में अनेंक मंगल द्रव्य रूपी सम्पदायें थीं। अष्टमंगल प्रातिहार्य उन्हीं सम्पदाओं में से हैं समवशरण तीर्थंकरों के धर्मोपदेश देने का पवित्र स्थान होता है, जिसे देवों द्वारा निर्मित किया जाता है। अष्ट मंगल प्रातिहार्य पूजनीय व पवित्रता के प्रतीक स्वरूप समवशरण स्थली में इस प्रकार समलंकृत हैं:-

तरू अशोक निकट में सिंहासन छविदार।

तीन छत्र सिर पर लसैं भा-मण्डल पिछवार।।

दिव्य ध्वनि मुख से खिरे, पुष्प वृष्टि सुर होय।

ढोरे चौसठ चमर चष, बाजे दुन्दुभि जोय।।

अष्ट प्रातिहार्य का विवरण

तीर्थंकर परमात्मा को जब केवलज्ञान हो जाता है, तब से चारों निकाय के देव उनकी सेवा में निरन्तर आते रहते हैं। देशना के समय सुवर्णरजत एवं मणिरत्न से युक्त तीन पीठिका वाले समवशरण में अष्ट महाप्रातिहार्य होते हैं, जो कैवल्योत्पत्ति के बाद सतत साथ रहते हैं। प्रातिहार्य तीर्थंकर भगवान् के पहिचान के विशेष चिन्ह हैं। तीर्थंकर परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी प्राणी को ये नहीं होते। प्रातिहायों की संख्या आठ ही होती है। इन प्रातिहार्यों को धारण करने की अर्हता जिनमें होती हैं, वे ही अरहन्त कहलाते हैं। अरिहन्त शब्द की व्याख्या इसी आधार पर की जाती है। प्रत्येक तीर्थंकर इन आठ प्रातिहार्यों से समलकृत होते हैं। ये प्रातिहार्य तीर्थंकर परमात्मा के महिमाबोधक चिन्ह के रूप में माने जाते हैं।

प्रातिहार्य की शाब्दिक संरचना से भी यह तथ्य स्पष्ट होता है- ‘‘प्रतिहारा इव प्रतिहारा सुरपति नियुक्ताः देवास्तेषां कर्माणि कृत्याणि प्रातिहार्याणि।’’ प्रातिहार्य की इस व्याख्या के अनुसार देवेन्दों द्वारा नियुक्त प्रतिहार, सेवक का कार्य करने वाले देवता को अरिहन्त के प्रतिहार कहते हैं और उनके द्वारा भक्ति हेतु रचित अशोक वृक्षादि को प्रातिहार्य कहते हैं।

अष्ट प्रातिहार्य के प्रकार 

प्रातिहार्य आठ कहे गये हैं। ये प्रातिहारों की तरह तीर्थंकरों के साथ सदैव रहने के कारण प्रातिहार्य कहलाते हैं। अष्ट महाप्रातिहार्य इस प्रकार हैं-

1 - अशोक वृक्ष 2 - सिंहासन 3 - भामंडल 4 - तीन छत्र 5 - चमर 6 - सुयरपुष्पवृष्टि 7 - दुन्दुभि  8 - दिव्यध्वनि।

1 अशोक वृक्ष - समवशरण में विराजित तीर्थंकर परमात्मा के सिंहासन पर अशोक वृक्ष शोभायमान होता है। यह वृक्ष वनस्पतिकायिक न होकर पार्थिव और देव रचित होता है। शोकरहित, तीर्थंकर के मस्तक पर रहने के कारण यह अशोक वृक्ष कहलाता है। तीर्थंकरों का सान्निध्य पाने वाले सभी जीव शोकरहित हो जाते हैं। अशोक वृक्ष यही संदेश है।

तीर्थंकर भगवन्त जिन-जिन वृक्षों के नीचे दीक्षा धारण करते हैं, वही उनका अशोक वृक्ष होता है। चैबीस तीर्थंकरों के अशोक वृक्ष अलग-अलग हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - न्यग्रोध/वट, सप्तपर्ण, शाल/साल, सरल/चीड़, प्रियंगु, प्रियंगु, शिरीष, नागवृक्ष!नागकेशर, शाल, अक्ष/बहेडा, धूलीपलाश/पलाश, तेंदू, पाटल/कदम, पीपल, दधिपर्ण/कैंथ, नन्दी, तिलक, आम्र, अशोक, चंपक/चम्पा, वकुल/मौलश्री, मेषश्रृंग/गुड़मार, धव/धौ और शाल ये चैबीस वृक्ष क्रमशः चैबीस तीर्थंकरों के अशोक वृक्ष हैं। इनकी ऊंचाई अपने-अपने तीर्थंकरों की ऊंचाई से बारह गुणी होती है।

वृक्ष सहिष्णुता का प्रतीक है। वह सर्दी, गर्मी, बरसात तथा प्राकृतिक प्रकोपों को प्रतीकार रहित होकर सहता है, तभी उसमें फूल और फल लगते हैं। मनुष्य भी जब वृक्ष की तरह सब प्रकार की बाधाओं को प्रतीकार रहित सहन करता है, तभी उसमें केवल्य का फल लगता है। भगवान् के मस्तक पर अवस्थित अशोक वृक्ष संभवतः यही संदेश देता है।

2 सिंहासन - समवशरण के मध्य स्थित रत्नमयी तीन पीठिाकओं के ऊपर चार सिंहासन होते हैं इनमें एक पर तीर्थंकर भगवन्त स्वयं विराजते हैं और शेष तीन पर परमात्मा के तीन प्रतिरूप रहते हैं। यह सिंहासन उत्तम रत्नों से रचित होता है तथा विकट दाढ़ों से युक्त विकराल सिंह-जैसी आकृति पर प्रतिष्ठित होता है। सिंहासन के ऊपर एक सहस्त्रदल कमल होता है। भगवान् उससे चार अंगुल ऊपर अधर में विराजमान रहते हैं।

3 भामंडल- घातिया कर्मों के क्षय के बाद भगवान् के मस्तक के चारों ओर परमात्मा के शरीर को उल्लसित/उद्योतित करने वाला अति सुन्दर, अनेक सूर्यों से भी अत्यधिक तेजस्वी और मनोहर भामंडल होता है। इसकी तेजस्विता तीनों जगत् के द्युतिमान् पदार्थों की द्युति का तिरस्कार करती है। ‘‘भा-मण्डल’’ यह महान् व्यक्तियों के सिर के पीछे गोलाकर में पीले रंग के चक्र जैसा होता है। तीर्थंकरों का प्रभावलय उनकी परम औदरिक अनुपम देह से निकलती हुई, कैवल्य रश्मियों का वर्तुलाकार मंडल है। उनकी दिव्यप्रभा के आगे कोटि-कोटि सूर्यों का प्रभाव भी हतप्रभ हो जाता है। सामान्य व्यक्तियों के पीछे पायी जानेवाली भावधारा को आभामण्डल (ओरा) कहते हैं। यह सबल और निर्बल दो प्रकार का होता है। जिनका चरित्र अच्छा हो, आत्मबल अधिक हो, उनका आभामंडल सबल और जिनकी नैतिक भावधारा हीन हो, उनका आभामण्डल निर्बल होता है। यह व्यक्ति की भावधारा का प्रतीक है।

सामान्य व्यक्तियों का आभामंडल परिवर्तनशील होता है। बाह्य तत्वों के प्रभाव से उनकी भावधारा सदैव बदलती रहती है, जबकि असामान्य और निर्मल भावधारा वाले व्यक्तियों पर अशुद्ध वायुमंडल का प्रभाव नहीं पड़ता। यह अपने आप में इतना सशक्त होता है कि अन्य भावधारा से प्रभावित नहीं होता, बल्कि यह अधिक बलवान् होकर अन्यों को अपने से प्रभावित भी करता है। यही कारण है कि महापुरूषों का सान्निध्य हमें अपनी तरंगों से प्रभावित कर प्रसन्नता प्रदान करता है। इससे निकलने वाली तेजस रश्मियां अलौकिक और शान्त होती हैं।

तीर्थंकरों के भामंडल की प्रतिच्छाया में भव्यात्मा अपने सात भवों को देख सकता है।

4 तीन छत्र- भगवान् के मस्तक पर रत्नमय तीन छत्र शोभायमान रहते हैं। ये तीनों छत्र तीनों लोकों के साम्राज्य को सूचित करते हैं। ये छत्र शरद ऋतु के चन्द्र के समान श्वेत, कुन्द और कुमुद - जैसे अत्यन्त शुभ्र और लटकती हुई मालाओं की पंक्तियों के समान अत्यन्त धवल एवं मनोरम होते हैं। तीनों छत्र ऊपर से नीचे की ओर विस्तारयुक्त होते हैं।

5 चमर - भगवान् के दोनों ओर सुन्दर सुसज्जित देवों द्वारा चैसठ चमर ढोरे जाते हैं। ये चमर कमलनालों के सुन्दर तंतु जैसे स्वच्छ, उज्जवल, ओर सुन्दर आकार वाले होते हैं। चमर में रहे रेशे इतने श्वेत एवं तेजस्वी होते हैं कि उनमें से चारों ओर किरणें निकलती हैं।  उत्तम रत्नों से रचित एवं स्वर्णमय होते हैं। ढोरे (बीजें) जाते हुए ये चमर ऐसे प्रतीत होते हैं मानो, इन्द्र धनुष नृत्य कर रहे हो। ये नमन और उन्नमन द्वारा सूचित करते हैं कि प्रभु को नमस्कार करने से सज्जन उच्च गति को प्राप्त होते हैं।

चमर ढोरने के सम्बंध में आचार्य मानतुंग कहते हैं- ‘‘हे परमात्मा! आपका स्वर्णिम देह ढुरते हुए चमरों से उसी भांति शोभा दे रहा है, जैसे स्वर्णमय सुमेरू पर्वत पर दो निर्मल जल के झरने झर रहे हों

6 पुष्प-वृष्टि - भगवान  के मस्तक पर आकाश से सुगन्धित जल की बूंदों से युक्त एवं सुखद, मन्दार, सुन्दर, नमेरू, पारिजात तथा सन्तानक आदि उत्तम वृक्षों के ऊध्र्वमुखी दिव्य फूलों की वर्षा होती रहती है। पुष्पवर्षा की सुरम्यता का चित्रण करते हुए आचार्य मानतुंग कहते हैं कि भगवन्! ये पुष्पों की पंक्ति ऐसी प्रतीत होती है, मानों आपके वचनों की पंक्ति ही फैल रही हो।’’

7 देव-दुन्दुभि - तीर्थंकर के सान्निध्य में ऊपर आकाश में भुवनव्यापी दुन्दुभि ध्वनि होती है। दुन्दुभिनाद सुनते ही आबाल वृद्धजनों को अपार आनंद का अनुभव होता है और देवाधिदेव अरिहन्त प्रभु के आगमन की सूचना भी सर्वजनों को एक साथ मिलती है। जगत् के सर्वप्राणियों को उत्तम पदार्थ प्रदान करने में यह दुन्दुभि समर्थ है। यह सर्द्धमराज अर्थात् परम उद्धारक तीर्थंकर भगवान् की समस्त संसार में जयघोष कर सुवश प्रकट करती है।यह दिव्य देव-दुन्दुभि देवों के हस्त तल से ताडि़त अथवा स्वयं शब्द करने वाली होती है। यह स्वयं के गम्भीर नाद से समस्त अन्तराल को प्रतिध्वनित करती है।

दुन्दुभि जयगान का प्रतीक है। यह तीर्थंकर भगवन्त के धर्मराज्य की घोषणा प्रकट करती है और आकाश में भगवान् के सुयश को सूचित करती है। यह विजय का भी प्रतीक है। संपूर्ण विश्व को जीतने वाले महान योद्धा मोह राजा को, अरिहन्त भगवान् ने शीघ्र ही जीत लिया है, ऐसा सूचित करता हुआ दुन्दुभिनाद सर्व जीवों के सर्वभयों को एक साथ दूर करता है।

8 दिव्य-ध्वनि - दिव्य - ध्वनि मृदु, मनोहर, अतिगंभीर और एक योजन प्रमाण समवशरण में विद्यमान देव, मनुष्य और तिर्यंच आदि सभी संज्ञी पंचेद्रिय जीवों को एक साथ प्रतिबोधित करने वाली होती है। जैसे मेघ का जल एकरूप होते हुए भी नाना वनस्पतियों में जाकर नानारूप परिणत हो जाता है, उसी तरह दनत, तालु, ओष्ठ आदि के स्पन्दन से रहित भगवान् की वाणी अट्ठारह महाभाषा और सात सौ लघुभाषा रूप परिणत होकर एक साथ समस्त भव्य जीवों को आनन्द प्रदान करती है। इसलिए भगवान् की वाणी को सर्व भाषा-स्वभावी कहते हैं।

तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि मागध जाति के व्यंतर देवों के निमित्त से सर्वजीवों को भले प्रकार से सुनाई पड़ती है। जैसे आजकल ध्वनि विस्तारक यंत्रों द्वारा ध्वनि को दूर तक पहुंचाया जाता है, वही काम मागध देवों का है। वे भगवान् की वाणी को एक योजन तक फैलाकर उसे सर्वभाषात्मकरूप परिणाम देते हैं। जैसे राष्ट्रपति भवन एवं संसद भवन आदि में एक ही भाषा में बोले गये शब्द अनेक भाषारूप में सुने जा सकते हैं, वैसे ही मागध जाति के देवों के निमित्त से संज्ञी जीव भगवान् की वाणी को अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। भगवान् की वाणी दिन में चार बार छह-छह घड़ी (दो घण्टे चैबीस मिनट) तक खिरती है।

इस प्रकर अष्टमहाप्रातिहार्यों से संयुक्त परमात्मा अद्भुत महिमावाले होते हैं।

 

Jai Jinendra

by Minukumar Rote at 07:23 AM, Nov 19, 2022

Jai jinendra 🙏

by Admin at 07:27 PM, Nov 20, 2022