समवशरण की रचना का मार्मिक ज्ञान



समवशरण का अर्थ

समवशरण "सबको शरण", तीर्थंकर के दिव्य उपदेश भवन के लिए प्रयोग किया जाता है| समवशरण दो शब्दों के मेल से बना है, "सम" (सबको) और "अवसर"। जहाँ सबको ज्ञान पाने का समान अवसर मिले, वह है समवशरण। तीर्थंकर भगवान की धर्मसभा को समवशरण कहते हैं।

समवशरण की रचना

 

जब भगवान को तपस्या के पश्चात् केवलज्ञान प्रगट होता है, तब समवशरण की रचना होती है। सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से धनकुबेर समवशरण की रचना करता है। धरती से बीस हजार हाथ की ऊँचाई पर आकाश में अधर समवशरण की रचना बनती है। पृथ्वी से लेकर समवशरण तक १-१ हाथ की बीस हजार सीढ़ियाँ होती हैं जिन्हें प्रत्येक प्राणी अन्तर्मुहूर्त में चढ़कर समवशरण में पहुँचते हैं और भगवान की दिव्यध्वनि का पान करते हैं। समवशरण गोलाकार बनता है।

समवशरण में आठ भूमियाँ होती हैं। उन आठ भूमियों के नाम इस प्रकार हैं-१. चैत्यप्रासाद भूमि २. खातिका भूमि ३. लताभूमि ४. उपवनभूमि ५. ध्वजाभूमि ६. कल्पवृक्षभूमि ७. भवनभूमि ८.श्रीमण्डपभूमि। समवशरण में जो आठवीं श्रीमण्डपभूमि है उसके बीचोंबीच तीन कटनी से सहित गंधकुटी में तीर्थंकर भगवान विराजमान होते हैं। उसी आठवीं श्रीमण्डपभूमि के अंदर गंधकुटी के बाहर चारों ओर गोलाकार में ही बारह सभाएँ लगती हैं।

बारह सभाओं का क्रम इस प्रकार रहता है-१. गणधर मुनि २. कल्पवासिनी देवी ३. आर्यिका और श्राविका ४. ज्योतिषी देवी ५. व्यन्तर देवी ६. भवनवासिनी देवी ७. भवनवासी देव ८. व्यन्तर देव ९. ज्योतिषीदेव १०. कल्पवासी देव ११. चक्रवर्ती आदि मनुष्य १२. सिंहादि तिर्यंच प्राणी। इन बारह कोठों में असंख्यातों भव्यजीव बैठकर धर्मोपदेश सुनकर अपना कल्याण करते हैं।

समवशरण रचना की व्यवस्था तो सबकी एक समान ही रहती है उसमें कोई अन्तर नहीं होता है। केवल तीर्थंकर की अवगाहना के अनुसार उनके समवसरण बड़े-छोटे अवश्य होते हैं। जैसे-भगवान ऋषभदेव की अवगाहना ५०० धनुष की थी अत: उनका समवशरण १२ योजन (९६ मील) का था और भगवान महावीर की अवगाहना ७ हाथ की थी अत: उनका समवशरण १ योजन (८ मील) में बना था।

समवशरण में जन्मजात विरोधी प्राणी भी मैत्रीभाव धारण कर आपसी प्रेम का परिचय प्रदान करते हैं। जैसे शेर और गाय एक घाट पर पानी पीते हैं, सर्प-नेवला भी एक-दूसरे को कोई हानि नहीं पहुँचाते हैं। समवशरण के प्रवेश द्वार पर ही चारों दिशाओं में एक-एक मानस्तंभ होते हैं। जहाँ पहुँचते ही मनुष्य का मान गलित होकर सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है उन्हें मानस्तंभ कहते हैं। जैसे इन्द्रभूति गौतम का वहाँ पहुँचते ही मान गलित हुआ एवं उन्होंने तुरंत जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर गणधर का पद प्राप्त कर लिया था।

 

 

Jai jinendra🙏🙏

by Prakash chandra jain at 07:36 PM, Nov 04, 2022

Jai jinendra 🙏

by Admin at 08:23 PM, Nov 16, 2022

ज्ञान का भंडार

by Kailash at 07:44 AM, Feb 22, 2022