Posted on 29-Sep-2024 07:52 PM
जय अकम्पनाचार्य आदि सात सो साधु मुनिव्रतधारी।
बलि ने कर नरमेघ यज्ञ उपसर्ग किया भीषण भारी ।।
जय जय विष्णु कुमार महामुनि ऋद्धि विक्रिया के धारी।
किया शीघ्र उपसर्ग निवारण वात्सल्य करुणा घारी ।।
रक्षा बंधन पर्व मना मुनियों को जय जयकार हुआ।
श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन घर-घर मंगलाचार हुआ।।
श्रीमुनि चरण कमल में वंदूँ पाऊँ प्रभु सम्यग्दर्शन ।
भक्ति भाव से पूजन करके निज स्वरूप में रहूँ मगन ।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादि सप्तशतकमुनि ! अत्रावतर अवतर। संवौषट्। ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादि सप्तशतकमुनि ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः। ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनचार्यादि सप्तशतकमुनि ! अत्र मम सन्निहितो भव भव। वषट्
जन्म मरण के नाश हेतु प्रासुक जल करता हूँ अर्पण।
राग द्वेष परिणति अभाव कर निज परिणति में करूँ रमण ।।
श्री अकम्पनाचार्य आदि मुनि सप्तशतक को करूँ नमन।
मुनि उपसर्ग निवारक विष्णुकुमार महामुनि को वंदन ।।
ॐ ह्रीं विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतक मुनिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
भव संताप मिटाने को मैं चंदन करता हूँ अर्पण।
देहभोग भव से विरक्त हो निज परिणति में करूं रमण ।। श्री...
ॐ ह्रीं विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतक मुनिभ्यो भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षयपद अखंड पाने को अक्षत धवल करूं अर्पण।
हिंसादिक पापों को क्षय कर निज परिणति में करूं रमण ।। श्री...
ॐ ह्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिम्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
कामबाण विध्वंस हेतु मैं सहज पुष्प करता अर्पण।
क्रोधादिक चारों कषाय हर निज परिणति में करूँ रमण ।। श्री...
ॐ ह्रीं विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतक मुनिभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षुधा रोग के नाश हेतु नैवेद्य सरस करता अर्पण।
विषय भोग की आकांक्षा हर निज परिणति में करूँ रमण ।। श्री...
ॐ ह्रीं विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतक मुनिभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिर मिथ्यात्व तिमिर हरने को दीप ज्योति करता अर्पण।
सम्यग्दर्शन का प्रकाश पा निज परिणति में करूँ रमण ॥ श्री...
ॐ ह्रीं विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतक मुनिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट कर्म के नाश हेतु यह धूप सुगंधित है अर्पण।
सम्यग्ज्ञान हृदय प्रगटाऊँ निज परिणति में करूँ रमण ॥ श्री...
ॐ ह्रीं विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तिप्राप्ति हेतु उत्तम फल चरणों में करता हूँ अर्पण। मैं सम्यक्चारित्र प्राप्त कर निज परिणति में करूँ रमण ।। श्री... ।।
ॐ ह्रीं विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतक मुनिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत पद अनर्घ पाने को उत्तम अर्घ करूँ अर्पण।
रत्नत्रय की तरणी खेऊँ निज परिणति में करूँ रमण ।। श्री...
ॐ ह्रीं विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
वात्सल्य के अंग की महिमा अपरम्पार । विष्णुकुमार मुनीन्द्र की गूंजी जय जयकार ।।
(तोटक)
उज्जयनी नगरी के नृप श्री वर्मा के मंत्री थे चार।
बलि प्रहलाद नमुचि बृहस्पति चारों अभिमानी सविकार ।।
जब अकम्पनाचार्य संघ मुनियों का नगरी में आया।
सात शतक मुनि के दर्शन कर नृप श्रीवर्मा हर्षाया ।।
सब मुनि मौन ध्यान में रत, लख बलि आदिक ने निंदा की।
कहा कि मुनि सब मूर्ख, इसी से नहीं तत्त्व की चर्चा की।।
किंतु लौटते समय मार्ग में, श्रुतसागर मुनि दिखलाये।
वाद विवाद किया श्रीमुनि से, हारे जीत नहीं पाये ॥
अपमानित होकर निशि में मुनि पर प्रहार करने आये।
खड़ग उठाते ही कीलित हो गए हृदय में फ्छताये ।।
प्रातः होते ही राजा ने आकर मुनि को किया नमन।
देश निकाला दिया मंत्रियों को तब राजा ने तत्क्षण ।।
चारों मंत्री अपमानित हो पहुंचे नगर हस्तिनापुर।
राजा पद्मराय को अपनी सेवाओं से प्रसन्न कर।।
मुँह माँगा वरदान नृपति ने बलि को दिया तभी तत्पर।
जब चाहूँगा तब ले लूंगा, बलि ने कहा नम्र होकर ॥
फिर अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियों सहित नगर आये।
बलि के मन में मुनियों की हत्या के भाव उदय आये ।।
कुटिल चाल चल बलि ने नृप से आठ दिवस का राज्य लिया।
भीषण अग्नि जलाई चारों ओर द्वेष से कार्य किया।
हाहाकार मचा जगती में, मुनि स्वध्यान में लीन हुए।
नश्वर देह भिन्न चेतन से यह विचार निज लीन हुए।
यह नरमेघ यज्ञ रच बलि ने किया दान का ढोंग विचित्र।
दान किमिच्छक देता था, पर मन था अतिहिंसक अपवित्र ।।
पद्मराय नृप के लघु भाई, विष्णुकुमार महामुनिवर।
वात्सल्य का भाव जगा, मुनियों पर संकट का सुनकर ॥
किया गमन आकाश मार्ग से, शीघ्र हस्तिनापुर आये।
ऋद्धि विक्रिया द्वारा याचक, वामन रूप बना लाये॥
बलि से माँगी तीन पाँव भू, बलिराजा हंसकर बोला।
जितनी चाहों उतनी ले लो, वामन मूर्ख बड़ा भोला ।।
हंसकर मुनि ने एक पाँव में ही सारी पृथ्वी नापी।
पग द्वितीय में मानुषोत्तर पर्वत की सीमा नापी ।।
ठौर न मिला तीसरे पग को, बलि के मस्तक पर रखा।
क्षमा क्षमा कह कर बलि ने, मुनि चरणों में मस्तक रखा ।।
शीतल ज्वाला हुई अग्नि की, श्री मुनियों की रक्षा की।
जय जयकार धर्म का गूंजा, वात्सल्य की शिक्षा दी।।
नवधा भक्तिपूर्वक सबने मुनियों को आहार दिया।
बलि आदिक का हुआ हृदय परिवर्तन जय जय जयकार किया ।।
रक्षासूत्र बाँधकर तब जन-जन ने मंगलाचार किये।
साधर्मी वात्सल्य भाव से, आपस में व्यवहार किये ।।
समकित के वात्सल्य अंग की महिमा प्रगटी इस जग में।
रक्षाबंधन पर्व इसी दिन से प्रारंभ हुआ जग में ।।
श्रावण शुक्ल पूर्णिमा का दिन था रक्षा सूत्र बंधा कर में।
वात्सल्य की प्रभावना का आया अवसर घर-घर में ।।
प्रायश्चित ले विष्णुकुमार ने पुनः व्रत ले तप ग्रहण किया।
अष्ट कर्म बंधन को हरकर इस भव से ही मोक्ष लिया ।।
सब मुनियों ने भी अपने-अपने परिणामों के अनुसार ।
स्वर्ग मोक्ष पद पाया जग में हुई धर्म की जय-जयकार ।।
धर्म भावना रहे हृदय में, पापों के प्रतिकूल चलूं।
रहे शुद्ध आचरण सदा ही, धर्म मार्ग अनुकूल चलूँ।
आत्म ज्ञान रुचि जगे हृदय में, निज पर को मैं पहिचानूं।
समकित के आठों अंगों की, पावन महिमा को जानूं ।।
तभी सार्थक जीवन होगा, सार्थक होगी यह नर देह।
अंतर घट में जब बरसेगा, पावन परम ज्ञान रस मेह।।
पर से मोह नहीं होगा, होगा निजात्म से अति नेह।
तब पाएँगे अखंड अविनाशी, निज सुखमय शिवगेह॥
रक्षाबंधन पर्व धर्म का, रक्षा का त्योहार महान।
रक्षाबंधन पर्व ज्ञान का, रक्षा का त्योहार प्रधान ॥
रक्षाबंधन पर्व चरित का, रक्षा का त्योहार महान।
रक्षाबंधन पर्व आत्म का, रक्षा का त्योहार प्रधान ॥
श्री अकम्पनाचार्य आदि मुनि सात शतक को करूँ नमन ।
मुनि उपसर्ग निवारक विष्णुकुमार महामुनि को वंदन ॥
ॐ ह्रीं विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
रक्षाबंधन पर्व पर,श्री मुनि पद उर धार।
मन वच तन जो पूजते,पाते सौख्य अपार ।।
॥ पुष्पांजलि क्षिपेत् ॥
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