Posted on 11-Jul-2023 08:22 PM
श्री विद्यासागर के चरणों में झुका रहा अपना माथा ।
जिनके जीवन की हर चर्या बन पड़ी स्वयं ही नवगाथा ।।
जैनागम का वह सुधा कलश जो बिखराते हैं गली गली ।
जिनके दर्शन को पाकर के खिलती मुरझाई हृदय कली ।।
ॐ ह्लीं श्री १०८ आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
सांसारिक विषयों में पड़कर, मैंने अपने को भरमाया।
इस रागद्वेष की वैतरणी से, अब तक पार नहीं पाया।।
तब विद्या सिन्धु के जल कण से, भवकालुष धोने आया हूँ।
आना-जाना मिट जाय मेरा, यह बन्ध काटने आया हूँ।।
ॐ ह्लीं श्री १०८ आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामिती ।
क्रोध अनल में जल-जल कर, अपना सर्वस्व लुटाया है।
निजशान्त स्वरूप न जान सका, जीवनभर इसे भुलाया है।
चन्दन सम शीतलता पाने अब, शरण तुम्हारी आया हूँ।
संसार ताप मिट जाये मेरा, चन्दन वन्दन को लाया हूँ।।
ॐ ह्लीं श्री १०८ आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामिती ।
जड़ को न मैंने जड़ समझा, नहिं अक्षय निधि को पहचाना ।
अपने तो केवल सपने थे, भ्रम और जगत का भटकाना ।।
चरणों में अर्पित अक्षत हैं, अक्षय पद मुझको मिल जावे ।
तव ज्ञान अरुण की किरणों से, यह हृदयकमल भी खिल जावे ।।
ॐ ह्लीं श्री १०८ आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामिती ।
इन विषय भोग की मदिरा पी, मैं बना सदा से मतवाला ।
तृष्णा को तृप्त करें जितनी उतनी बढ़ती इच्छा ज्वाला ।।
मैं काम भाव विध्वंस हेत, मन सुमन चढ़ाने आया हूँ।
यह मदन विजेता बन न सके, यह भाव हृदय में लाया हूँ।।
ॐ ह्लीं श्री १०८ आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय कामबाण विनाशनाय पुष्पं निर्वपामिति ।
इस क्षुधा रोग की व्यथा कथा, भवभव में कहता आया हूँ।
अति भक्ष अभक्ष्य भखे फिर भी, मनतृप्त नहीं कर पाया हूँ।
नैवेद्य समर्पित करके मैं, तृष्णा की भूख मिटाऊँगा ।
अब और अधिक न भटक सकूँ, यह अन्तर बोध जगाऊँगा ।।
ॐ ह्लीं श्री १०८ आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामिती।
मोहान्धकार से व्याकुल हो निज को नहिं मैंने पहचाना ।
मैं रागद्वेष में लिप्त रहा, इस हाथ रहा बस पछताना ।।
यह दीप समर्पित है मुनिवर, मेरा तम दूर भगा देना ।
तुम ज्ञान दीप की बाती से, मम अन्तर दीप जला देना ।।
ॐ ह्लीं श्री १०८ आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामिती ।
इन अशुभ कर्म ने घेरा है, मैंने अब तक यह माना था ।
बस पाप कर्म तज पुण्य कर्म को, चाह रहा अपनाना था ।
शुभ अशुभ कर्म सब रिपुदल हैं, मैं इन्हें जलाने आया हैं।
इसलिए तव चरणों में,अब धूप चढ़ाने आया हूं।
ॐ ह्लीं श्री १०८ आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामिती ।
भोगों को इतना भोगा कि, खुद को ही भोग बना डाला।
साध्य और साधक का अंतर, मैंने आज मिटा डाला ।।
मैं चिदानन्द में लीन रहूँ, पूजा का यह फल पाना है।
पाना था जिसके द्वारा वह मिल बैठा मुझे ठिकाना है ।।
ॐ ह्लीं श्री १०८ आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामिती ।
जग के वैभव को पाकर मैं, निश दिन कैसा अलमस्त रहा।
चारों गतियों की ठोकर को, खाने में ही अभ्यस्त रहा ।।
मैं हूँ स्वतंत्र ज्ञाता दृष्टा, मेरा पर से क्या नाता है।
कैसे अनर्घ पद पा जाऊँ, यह 'अरुण' भावना भाता है।
ॐ ह्लीं श्री १०८ आचार्य विद्यासागरमुनींद्राय अनर्घ्यपदप्राप्तय अर्घ्य निर्वपामिती स्वाहा।
जयमाला
हे गुरुवर तेरे गुण गाने, अर्पित हैं जीवन के क्षण क्षण ।
अर्चन के सुमन समर्पित हैं, हरषाये जगती के कण कण ॥१॥
कर्नाटक के सदलगा ग्राम में, मुनिवर तुमने जन्म लिया ।
मल्लप्पा पूज्य पिता श्री को, अरु श्रीमति को कृतकृत्य किया ॥२॥
बचपन के इस विद्याधर में, विद्या के सागर उमड़ पड़े ।
मुनिराज देशभूषण से तुम, व्रत ब्रह्मचर्य ले निकल पड़े ।।३॥
आचार्य ज्ञानसागर ने सन्, अड़सठ में मुनि पद दे डाला ।
अजमेर नगर में हुआ उदित, मानों रवि तम हरने वाला ॥४॥
परिवार तुम्हारा सबका सब, जिन पथ पर चलने वाला है।
वह भेद ज्ञान की छैनी से, गिरि कर्म काटने वाला है ।।५।।
तुम स्वयं तीर्थ से पावन हो, तुम हो अपने में समयसार ।
तुम स्यादवाद के प्रस्तोता, वाणी-वीणा के मधुर तार ।।६।।
तुम कुन्दकुन्द के कुन्दन से, कुन्दन सा जग को कर देने ।
तुम निकल पड़े बस इसीलिए भटके अटकों को पथ देने ॥७॥
वह मन्द मधुर मुस्कान सदा, चेहरे पर बिखरी रहती है।
वाणी कल्याणी है अनुपम, करुणा के झरने झरते हैं ।।८।।
तुममें कैसा सम्मोहन है, या है कोई जादू टोना ।
जो दर्श तुम्हारे कर जाता, नहिं चाहे कभी विलग होना ।।९।।
इस अल्प उम्र में भी तुमने साहित्य सृजन अति कर डाला।
जैन गीत गागर में तुमने, मानो सागर भर डाला ।।१०।।
हैं शब्द नहीं गुण गाने को गाना भी मेरा अनजाना ।
स्वर ताल छन्द मैं क्या जानूँ, केवल भक्ति में रम जाना ।।११।।
भावों की निर्मल सरिता में, अवगाहन करने आया हूँ।
मेरा सारा दुख दर्द हरो, यह अर्घ भेंटने लाया हूँ ।।१२।।
हे तपो मूर्ति ! हे आराधक ! हे योगीश्वर ! हे महासन्त ।
यह 'अरुण' कामना देख सके, युग-युग तक आगामी बसन्त ॥१३॥
ॐ ह्लीं श्री १०८ आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय अनर्घपदप्राप्तय पूर्णार्घ्य निर्व. स्वाहा।
इत्याशीर्वाद :
0 टिप्पणियाँ