Posted on 22-Mar-2021 09:31 PM
अपराजित तें आय नाथ मिथिलापुर जाये |
कुंभराय के नन्द, प्रजावति मात बताये ||
कनक वरन तन तुंग, धनुष पच्चीस विराजे |
सो प्रभु तिष्ठहु आय निकट मम ज्यों भ्रम भाजे ||
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् |
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |
सुर-सरिता-जल उज्ज्वल ले कर, मनिभृंगार भराई |
जनम जरामृतु नाशन कारन, जजहूं चरन जिनराई ||
राग-दोष-मद-मोह हरन को, तुम ही हो वरवीरा |
यातें शरन गही जगपतिजी, वेगि हरो भवपीरा ||
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि.स्वाहा |1|
बावनचंदन कदली नंदन, कुंकुमसंग घसायो |
लेकर पूजौं चरनकमल प्रभु, भवआताप नसायो ||राग.
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि.स्वाहा |2|
तंदुल शशिसम उज्ज्वल लीने, दीने पुंज सुहाई |
नाचत राचत भगति करत ही, तुरित अखैपद पाई ||राग.
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि.स्वाहा |3|
पारिजात मंदार सुमन, संतान जनित महकाई |
मार सुभट मद भंजनकारन, जजहुं चरण शिरनाई ||राग.
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि.स्वाहा |4|
फेनी गोझा मोदन मोदक, आदिक सद्य उपाई |
सो लै क्षुधा निवारन कारन जजहुं चरन लवलाई ||राग.
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि.स्वाहा |5|
तिमिरमोह उरमंदिर मेरे, छाय रह्यो दुखदाई |
तासु नाश करन को दीपक, अद्भुत जोति जगाई ||राग.
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि.स्वाहा |6|
अगर तगर कृष्णागर चंदन चूरि सुगंध बनाई |
अष्टकरम जारन को तुम ढिग, खेवत हौं जिनराई ||राग.
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि.स्वाहा |7|
श्रीफल लौंग बदाम छुहारा, एला केला लाई |
मोक्ष महाफल दाय जानिके, पूजैं मन हरखाई ||राग.
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि.स्वाहा |8|
जल फल अरघ मिलाय गाय गुन, पूजौं भगति बढ़ाई |
शिवपदराज हेत हे श्रीधर, शरन गही मैं आई ||राग.
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि.स्वाहा |9|
पंच कल्याणकअर्घ्यावली
चैत की शुद्ध एकैं भली राजई, गर्भकल्यान कल्यान को छाजई |
कुंभराजा प्रजापति माता तने, देवदेवी जजे शीश नाये घने ||
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाप्रतिपदायां गर्भमंगलमण्डिताय श्रीमल्लि.अर्घ्यं नि. |1|
मार्गशीर्षे सुदी ग्यारसी राजई, जन्मकल्याण को द्यौस सो छाजई |
इन्द्र नागेंद्र पूजें गिरिंद्र जिन्हें, मैं जजौं ध्याय के शीश नावौं तिन्हें ||
ॐ ह्रीं मार्गशीर्ष-शुक्लैकादश्यां जन्ममंगलमण्डिताय श्रीमल्लि.अर्घ्यं नि. |2|
मार्गशीर्षे सुदीग्यारसीके दिना, राजको त्याग दीच्छा धरी है जिना |
दान गोछीरको नन्दसेने दयो, मैं जजौं जासुके पंच चर्ज भयो ||
ॐ ह्रीं मार्गशीर्ष-शुक्लैकादश्यां तपोमंगलमण्डिताय श्रीमल्लि.अर्घ्यं नि. |3|
पौष की श्याम दूजी हने घातिया, केवलज्ञानसाम्राज्यलक्ष्मी लिया |
धर्मचक्री भये सेब शक्री करें, मैं जजौं चरण ज्यों कर्म वक्री टरें ||
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाद्वितीयायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीमल्लि.अर्घ्यं नि. |4|
फाल्गुनी सेत पांचैं अघाती हते, सिद्ध आलै बसै जाय सम्मेदतें |
इन्द्रनागेंन्द्र कीन्ही क्रिया आयके, मैं जजौं सो मही ध्यायके गायके ||
ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लापंचम्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीमल्लि.अर्घ्यं नि. |5|
जयमाला
तुअ नमित सुरेशा, नर नागेशा, रजत नगेशा भगति भरा |
भवभयहरनेशा, सुखभरनेशा, जै जै जै शिव-रमनिवरा |1|
जय शुद्ध चिदातम देव एव, निरदोष सुगुन यह सहज टेव |
जय भ्रमतम भंजन मारतंड, भवि भवदधि तारन को तरंड |2|
जय गरभ जनमंडित जिनेश, जय छायक समकित बुद्धभेस |
चौथे किय सातों प्रकृतिछीन, चौ अनंतानु मिथ्यात तीन |3|
सातंय किय तीनों आयु नाश, फिर नवें अंश नवमें विलास |
तिन माहिं प्रकृति छत्तीस चूर, या भाँति कियो तुम ज्ञानपूर |4|
पहिले महं सोलह कहँ प्रजाल, निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचाल |
हनि थानगृद्धि को सकल कुव्व, नर तिर्यग्गति गत्यानुपुव्व |5|
इक बे ते चौ इन्द्रीय जात, थावर आतप उद्योत घात |
सूच्छम साधारन एक चूर, पुनि दुतिय अंश वसु कर्यो दूर |6|
चौ प्रत्याप्रत्याख्यान चार, तीजे सु नपुंसक वेद टार |
चौथे तियवेद विनाशकीन, पांचें हास्यादिक छहों छीन |7|
नर वेद छठें छय नियत धीर, सातयें संज्ज्वलन क्रोध चीर |
आठवें संज्ज्वलन मान भान, नवमें माया संज्ज्वलन हान |8|
इमि घात नवें दशमें पधार, संज्ज्वलन लोभ तित हू विदार |
पुनि द्वादशके द्वय अंश माहिं, सोरह चकचूर कियो जिनाहिं |9|
निद्रा प्रचला इक भाग माहिं, दुति अंश चतुर्दश नाश जाहिं |
ज्ञानावरनी पन दरश चार, अरि अंतराय पांचो प्रहार |10|
इमि छय त्रेशठ केवल उपाय, धरमोपदेश दीन्हों जिनाय |
नव केवललब्धि विराजमान, जय तेरमगुन तिथि गुनअमान |11|
गत चौदहमें द्वै भाग तत्र, छय कीन बहत्तर तेरहत्र |
वेदनी असाता को विनाश, औदारि विक्रियाहार नाश |12|
तैजस्य कारमानों मिलाय, तन पंच पंच बंधन विलाय |
संघात पंच घाते महंत, त्रय अंगोपांग सहित भनंत |13|
संठान संहनन छह छहेव, रसवरन पंच वसु फरस भेव |
जुग गंध देवगति सहित पुव्व, पुनि अगुरुलघु उस्वास दुव्व |14|
परउपघातक सुविहाय नाम, जुत असुभगमन प्रत्येक खाम |
अपरज थिर अथिर अशुभ सुभेव, दुरभाग सुसुर दुस्सुर अभेव |15|
अन आदर और अजस्य कित्त, निरमान नीचे गोतौ विचित्त |
ये प्रथम बहत्तर दिय खपाय, तब दूजे में तेरह नशाय |16|
पहले सातावेदनी जाय, नर आयु मनुष्यगति को नशाय |
मानुष्य गत्यानु सु पूरवीय, पंचेंद्रिय जात प्रकृति विधिय |17|
त्रसवादर पर्जापति सुभाग, आदरजुत उत्तम गोत पाग |
जसकीरत तीरथप्रकृत जुक्त, ए तेरह छयकरि भये मुक्त |18|
जय गुनअनंत अविकार धार, वरनत गणधर नहिं लहत पार |
ताकों मैं वंदौं बार बार, मेरी आपत उद्धार धार |19|
सम्मेदशैल सुरपति नमंत, तब मुकतथान अनुपम लसंत |
वृन्दावन वंदत प्रीत-लाय, मम उर में तिष्ठहु हे जिनाय |20|
जय जय जिनस्वामी, त्रिभुवननामी, मल्लि विमल कल्यानकरा |
भवदंदविदारन आनंद कारन, भविकुमोद निशिईश वरा |21|
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |
जजें हैं जो प्रानी दरब अरु भावादि विधि सों,
करैं नाना भाँति भगति थुति औ नौति सुधि सों |
लहै शक्री चक्री सकल सुख सौभाग्य तिनको,
तथा मोक्ष जावे जजत जन जो मल्लिजिन को ||
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
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