दशलक्षण धर्म पूजा (द्यानतराय कृत)



कविवर द्यानतराय

 

उत्तम क्षमा मारदव आरजव भाव हैं,

सत्य शौच संयम तप त्याग उपाव हैं

आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश सार हैं,

चहुँगति-दुखतैं काढ़ि मुकति करतार हैं ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं। 

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं। 

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं। 

अष्टक

(सोरठा)

हेमाचल की धार, मुनि-चित सम शीतल सुरभि

भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 

 

चन्दन केशर गार, होय सुवास दशों दिशा

भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 

 

अमल अखण्डित सार, तन्दुल चन्द्र समान शुभ

भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। 

 

फूल अनेक प्रकार, महकें ऊरध-लोकलों

भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। 

 

नेवज विविध निहार, उत्तम षट्-रस-संजुगत

भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 

 

बाति कपूर सुधार, दीपक-ज्योति सुहावनी

भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 

 

अगर धूप विस्तार, फैले सर्व सुगन्धता

भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 

 

फल की जाति अपार, घ्रान-नयन-मन-मोहने

भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 

 

आठों दरब सँवार, 'द्यानत' अधिक उछाहसौं

भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 

अंगपूजा

उत्तम क्षमा

सोरठा

पीड़ैं दुष्ट अनेक, बाँध मार बहुविधि करैं

धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजै पीतमा ॥

चोपाई 

उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह-भव जस, पर भव सुखदाई

गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहै अयानो ॥

गीता छंद

कहि है अयानो वस्तु छीनै, बाँध मार बहुविधि करै

घर तैं निकारै तन विदारै, वैर जो न तहाँ धरै ॥

ते करम पूरब किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा

अति क्रोध-अगनि बुझाय प्रानी, साम्य-जल ले सीयरा ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

 

उत्तम मार्दव

मान महाविषरूप, करहि नीच-गति जगत में

कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्रानी सदा ॥

उत्तम मार्दव गुन मन-माना, मान करन को कौन ठिकाना

बस्यो निगोद माहिं तैं आया, दमरी रूँकन भाग बिकाया ॥

रूँकन बिकाया भाग वशतैं, देव इक-इन्द्री भया

उत्तम मुआ चाण्डाल हूवा, भूप कीड़ों में गया ॥

जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करै जल-बुदबुदा

करि विनय बहु-गुन बड़े जन की, ज्ञान का पावै उदा ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तममार्दवधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

 

उत्तम आर्जव

कपट न कीजै कोय, चोरन के पुर ना बसै

सरल सुभावी होय, ताके घर बहु-सम्पदा ॥

उत्तम आर्जव रीति बखानी, रंचक दगा बहुत दुखदानी

मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सौं करिये ॥

करिये सरल तिहुँ जोग अपने देख निरमल आरसी

मुख करै जैसा लखै तैसा, कपट-प्रीति अँगार-सी ॥

नहिं लहै लक्ष्मी अधिक छल करि, करम-बन्ध विशेषता

भय त्यागि दूध बिलाव पीवै, आपदा नहिं देखता ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तम-आर्जवधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

 

उत्तम शौच

धरि हिरदै सन्तोष, करहु तपस्या देह सों

शौच सदा निर्दोष, धरम बड़ो संसार में ॥

उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना

आशा-फांस महा दुखदानी, सुख पावै सन्तोषी प्रानी ॥

प्रानी सदा शुचि शील जप तप, ज्ञान ध्यान प्रभावतैं

नित गंग जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि-दोष सुभावतैं ॥

ऊपर अमल मल भर्यो भीतर, कौन-विधि घट शुचि कहै

बहु देह मैली सुगुन-थैली, शौच-गुन साधू लहै ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

 

उत्तम सत्य

कठिन वचन मति बोल, पर-निन्दा अरु झूठ तज

साँच जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी ॥

उत्तम सत्य-बरत पालीजै, पर-विश्वासघात नहिं कीजै

साँचे-झूठे मानुष देखो, आपन पूत स्वपास न पेखो ॥

पेखो तिहायत पुरुष साँचे को दरब सब दीजिये

मुनिराज-श्रावक की प्रतिष्ठा, साँच गुण लख लीजिये ॥

ऊँचे सिंहासन बैठि वसु नृप, धरम का भूपति भया

वच झूठ सेती नरक पहुँचा, सुरग में नारद गया ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमसत्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

 

उत्तम संयम

काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्रिय मन वश करो

संजम-रतन सँभाल, विषय-चोर बहु फिरत हैं ॥

उत्तम संजम गहु मन मेरे, भव-भव के भाजैं अघ तेरे

सुरग-नरक-पशुगति में नाहीं, आलस-हरन करन सुख ठाँहीं ॥

ठाहीं पृथी जल आग मारुत, रूख त्रस करुना धरो

सपरसन रसना घ्रान नैना, कान मन सब वश करो ॥

जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग-कीच में

इक घरी मत विसरो करो नित, आयु जम-मुख बीच में ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

 

उत्तम तप

तप चाहैं सुरराय, करम-शिखर को वज्र है

द्वादशविधि सुखदाय, क्यों न करै निज सकतिसम ॥

उत्तम तप सब माहिं बखाना, करम-शैल को वज्र-समाना

बस्यो अनादि निगोद मँझारा, भू विकलत्रय पशु तन धारा ॥

धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता

श्रीजैनवानी तत्त्वज्ञानी, भई विषय-पयोगता ॥

अति महा दुरलभ त्याग विषय-कषाय जो तप आदरैं

नर-भव अनूपम कनक घर पर, मणिमयी कलसा धरैं ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमतपोधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

 

उत्तम त्याग

दान चार परकार, चार संघ को दीजिए

धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिए ॥

उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शास्त्र अभय आहारा

निहचै राग-द्वेष निरवारै, ज्ञाता दोनों दान सँभारै ॥

दोनों सँभारै कूप-जल सम, दरब घर में परिनया

निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया ॥

धनि साध शास्त्र अभय दिवैया, त्याग राग विरोध को

बिन दान श्रावक साधु दोनों, लहैं नाहीं बोध को ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

 

उत्तम आकिंचन्य

परिग्रह चौबिस भेद, त्याग करैं मुनिराजजी

तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइए ॥

उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह-चिन्ता दुख ही मानो

फाँस तनक-सी तन में सालै, चाह लँगोटी की दुख भालै ॥

भालै न समता सुख कभी नर, बिना मुनि-मुद्रा धरैं

धनि नगन पर तन-नगन ठाड़े, सुर-असुर पायनि परैं ॥

घर माहिं तिसना जो घटावे, रुचि नहीं संसार सौं

बहु धन बुरा हू भला कहिये, लीन पर-उपगार सौं ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमाकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

 

उत्तम ब्रह्मचर्य

शील-बाढ़ नौ राख, ब्रह्म-भाव अन्तर लखो

करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर-भव सदा ॥

उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनौ, माता बहिन सुता पहिचानौ

सहैं बान-वरषा बहु सूरे, टिकै न नैन-बान लखि कूरे ॥

कूरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करैं

बहु मृतक सड़हिं मसान माहीं, काग ज्यों चोंचैं भरैं ॥

संसार में विष-बेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा

'द्यानत' धरम दश पैड़ि चढ़ि कै, शिव-महल में पग धरा ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

 

जयमाला

दोहा

दश लच्छन वन्दौं सदा, मनवांछित फलदाय।

कहों आरती भारती, हम पर होहु सहाय ॥

बेसरी छंद

उत्तम छिमा जहाँ मन होई, अन्तर-बाहिर शत्रु न कोई।

उत्तम मार्दव विनय प्रकासे, नाना भेद ज्ञान सब भासे॥

उत्तम आर्जव कपट मिटावे, दुरगति त्यागि सुगति उपजावे।

उत्तम शौच लोभ-परिहारी, सन्तोषी गुण-रतन भण्डारी ॥

उत्तम सत्य-वचन मुख बोले, सो प्रानी संसार न डोले।

उत्तम संजम पाले ज्ञाता, नर-भव सफल करै, ले साता ॥

उत्तम तप निरवांछित पाले, सो नर करम-शत्रु को टाले।

उत्तम त्याग करे जो कोई, भोगभूमि-सुर-शिवसुख होई ॥

उत्तम आकिंचन व्रत धारे, परम समाधि दशा विसतारे।

उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावे, नर-सुर सहित मुकति-फल पावे ॥

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्याग-आकिंचन्य-ब्रह्मचर्य दशलक्षणधर्माय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

करै करम की निरजरा, भव पींजरा विनाश।

अजर अमर पद को लहैं, 'द्यानत' सुख की राशि ॥

इत्याशीर्वाद:पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्