Posted on 11-May-2020 09:16 PM
आर्यिका ज्ञानमती माताजी
अनुपम अनादि अनंत है, यह मंत्रराज महान् है |
सब मंगलों में प्रथम मंगल, करता अघ की हान है ||
अरिहन्त सिद्धाचार्य पाठक, साधुओं की वंदना |
इस शब्दमय परब्रह्म को, थापूँ करूँ नित अर्चना ||१||
ओं ह्रीं श्री अनादिऽनिधनपंचनमस्कारमंत्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्! (आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्री अनादिऽनिधन पंचनमस्कारमंत्र ! अत्रा तिष्ट तिष्ट ठ: ठ: (स्थापनम्)
ओं ह्रीं श्री अनादिऽनिधन पंचनमस्कारमंत्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)
अथाष्टक (भुजंगप्रयात छन्द)
महातीर्थ गंगा नदी नीर लाऊँ |
महामंत्र की नित्य पूजा रचाऊँ ||
णमोकार मंत्राक्षरों को जजूँ मैं |
महाघोर संसार दु:ख से बचूँ मैं ||
ओं ह्रीं श्रीपंचनमस्कारमंत्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
कपूरादि चंदन महागंध लाके |
परम शब्द-ब्रह्मा की पूजा रचाके ||
णमोकार मंत्राक्षरों को जजूँ मैं |
महाघोर संसार दु:ख से बचूँ मैं ||
ओं ह्रीं श्रीपंचनमस्कारमंत्राय संसारताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
पय:सिन्धु के फेन सम अक्षतों को |
लिया थाल में पुंज से पूजने को ||
णमोकार मंत्राक्षरों को जजूँ मैं |
महाघोर संसार दु:ख से बचूँ मैं ||
ओं ह्रीं श्रीपंचनमस्कारमंत्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।
जुही कुंद अरविन्द मंदार माला |
चढ़ाऊँ तुम्हें काम को मार डाला ||
णमोकार मंत्राक्षरों को जजूँ मैं |
महाघोर संसार दु:ख से बचूँ मैं ||
ओं ह्रीं श्रीपंचनमस्कारमंत्राय कामबाण- विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
कलाकंद लड्डू इमर्ती बनाऊँ |
तुम्हें पूजते भूख व्याधि नशाऊँ ||
णमोकार मंत्राक्षरों को जजूँ मैं |
महाघोर संसार दु:ख से बचूँ मैं ||
ओं ह्रीं श्रीपंचनमस्कारमंत्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
शिखा-दीप की ज्योति विस्तारती है |
महामोह अंधेर संहारती है ||
णमोकार मंत्राक्षरों को जजूँ मैं |
महाघोर संसार दु:ख से बचूँ मैं ||
ओं ह्रीं श्रीपंचनमस्कारमंत्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
सुगंधी बढ़े धूप खेते अगनि में |
सभी कर्म की, भस्म हो एक क्षण में ||
णमोकार मंत्राक्षरों को जजूँ मैं |
महाघोर संसार दु:ख से बचूँ मैं ||
ओं ह्रीं श्रीपंचनमस्कारमंत्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
अनन्नास अंगूर अमरूद लाया |
महामोक्ष सम्पत्ति हेतु चढ़ाया ||
णमोकार मंत्राक्षरों को जजूँ मैं |
महाघोर संसार दु:ख से बचूँ मैं ||
ओं ह्रीं श्रीपंचनमस्कारमंत्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
उदक गंध आदि मिला अर्घ्य लाया |
महामंत्र नवकार को मैं चढ़ाया ||
णमोकार मंत्राक्षरों को जजूँ मैं |
महाघोर संसार दु:ख से बचूँ मैं ||
ओं ह्रीं श्रीपंचनमस्कारमंत्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
(दोहा)
शांतिधारा मैं करूँ, तिहुँ जग शांति हेत |
भव भव आतम शांत हो, पूजँ भक्ति समेत ||
शांतये शांतिधारा
(दोहा)
बकुल मल्लिका पुष्प ले, पूजूँ मंत्र महान् |
पुष्पांजलि से पूजते, सकल सौख्य वरदान ||
दिव्य पुष्पांजलिं क्षिपामि।
(जाप्य)
ओं ह्रां णमो अरिहंताणं, ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं, ओं ह्रूं णमो आइरियाणं,
ओं ह्रौं णमो उवज्झायाणं, ओं ह्र : णमो लोए सव्व-साहूणं।
(108 सुगन्धित श्वेतपुष्पों से या लवंग अथवा पीले तंदुलों से जाप्य करें।)
जयमाला
(सोरठा छन्द)
पंच परमगुरु देव, नमूँ नमूँ नत शीश मैं |
करो अमंगल-छेव, गाऊँ तुम गुणमालिका ||
(चाल-हे दीनबन्धु……)
जैवंत महामंत्र मूर्तिमंत धरा में |
जैवंत परम ब्रह्म शब्द ब्रह्म धरा में ||
जैवंत सर्व मंगलों में मंगलीक हो |
जैवंत सर्व लोक में तुम सर्वश्रेष्ठ हो ||१||
त्रैलोक्य में हो एक तुम्हीं शरण हमारे |
माँ शारदा भी नित्य ही तव कीर्ति उचारे ||
विघ्नों का नाश होता है तुम नाम जाप से |
सम्पूर्ण उपद्रव नशे हैं तुम प्रताप से ||२||
छियालीस सुगुण को धरें अरिहंत जिनेशा |
सब दोष अठारह से रहित त्रिजग महेशा ||
ये घातिया को घात के परमात्मा हुये |
सर्वज्ञ वीतराग औ’ निर्दोष गुरु हुए ||३||
जो अष्ट-कर्म नाश के ही सिद्ध हुए हैं |
वे अष्ट गुणों से सदा विशिष्ट हुए हैं ||
लोकाग्र में हैं राजते वे सिद्ध अनंता |
सर्वार्थसिद्धि देते हैं वे सिद्ध महंता ||४||
छत्तीस गुण को धारते आचार्य हमारे |
चउसंघ के नायक हमें भव सिंधु से तारें ||
पच्चीस गुणों युक्त्त उपाध्याय कहाते |
भव्यों को मोक्षमार्ग का उपदेश पढ़ाते ||५||
जो साधु अट्ठार्इस मूल गुण को धारते |
वे आत्म साधना से साधु नाम धारते ||
ये पंच परमदेव भूतकाल में हुए |
होते हैं वर्तमान में भी पंचगुरु ये ||६||
होंगे भविष्यकाल में भी सुगुरु अनंते |
ये तीन लोक तीन काल के हैं अनंते ||
इन सब अनंतानंत की वंदना करूँ |
शिव पथ के विघ्न पर्वतों की खंडना करूँ ||७||
इक ओर तराजू पे अखिल गुण को चढ़ाऊँ |
इक ओर महामंत्र अक्षरों को धराऊँ ||
इस मंत्र के पलड़े को उठा न सके कोई |
महिमा अनंत यह धरे ना इस सदृश कोई ||८||
इस मंत्र-प्रभाव से श्वान देव हो गया |
इस मंत्र से अनंत का उद्धार हो गया ||
इस मंत्र की महिमा को कोई गा नहीं सके |
इसमें अनंत शक्ति पार पा नहीं सके ||९||
पाँचों पदों से युक्त मंत्र सारभूत है |
पैंतीस अक्षरों से मंत्र परमपूत है ||
पैंतीस अक्षरों के जो पैंतीस व्रत करे |
उपवास या एकासना से सौख्य को भरे ||१०||
तिथि सप्तमी के सात पंचमी के पाँच हैं |
चौदश के चौदह नवमी के भी नव विख्यात हैं |
इस विधि से महामंत्र की आराधना करें |
वे मुक्ति वल्लभापति निज कामना धरें ||११||
(दोहा)
यह विष को अमृत करे, भव-भव पाप विदूर |
पूर्ण ‘ज्ञानमति’ हेतु मैं जजूँ, भरो सुख पूर ||१२||
ओं ह्रीं श्री अनादिऽनिधन पंचनमस्कारमंत्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
(सोरठा छन्द)
मंत्रराज सुखकार, आतम अनुभव देत है |
जो पूजें रुचिधार, स्वर्ग मोक्ष के सुख लहें ||
।। इत्याशीर्वाद: शांतिधारा, पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
0 टिप्पणियाँ