Posted on 11-May-2020 03:14 PM
अरिहंत सिद्धाचार्य पाठक साधू त्रिभुवन वन्द्य हैं |
जिनधर्म जिनागम जिनेश्वरा मूर्ति जिनग्रह वन्द्य हैं ||
नवदेवता ये मान्य जग में, हम सदा अर्चा करें |
आहवन कर थापें यहाँ , मन में अतुल श्रद्धा धरें ||
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालये-समूह
अत्र अवतर अवतर-सम्वोषत आव्हानं
अत्र-तिष्ठ-तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
अत्र मम-संहितों-भव-भव-वषट सन्निधिकरणं
गंगानदी का नीर निर्मल बाह्य मल धोवे सदा |
अंतर मलो के क्षालने को नीर से पूजूं मुदा ||
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें |
सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगल पाए शिवकान्ता वरें ||
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो जन्म-जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामिति स्वाहा |
कपूर मिश्रित गंध चन्दन, देह ताप निवारता |
तुम पाद पंकज पूजते, मन ताप तुरन्त ही वारता || नव. ||
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो संसार-ताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामिति स्वाहा |
क्षीरोदधि के फेन सम, सित तन्दुलो को ले के |
उत्तम अखंडित सौख्य हेतु, पुंज नव सुचढाय के || नव. ||
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा |
चंपा चमेली केवडा, नाना सुगन्धित ले लिए |
भव के विजेता आपको, पूजत सुमन अर्पण किये || नव. ||
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो काम-बाण विनाशनाय पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा |
पायस मधुर पकवान मोदक, आदि को भर थाल में |
निज आत्म अमृत सौख्य हेतु, पूजहु नत भाल मैं || नव. ||
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो क्षुधा-रोग विनाशनाय नैवेध्यम निर्वपामिति स्वाहा |
कपूर ज्योति जगमगे दीपक, लिया निज हाथ में |
तुअ आरती तम वारती, पाऊं सुज्ञान प्रकाश मैं || नव. ||
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो मोह-अन्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामिति स्वाहा |
दश गंध धुप अनूप सुरभित, अग्नि में खेऊ सदा |
नीज आत्मगुण सौरभ उठे, हो कर्म सब मुझसे विदा || नव. ||
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो अष्ट-कर्म-दहनाय धूपं निर्वपामिति स्वाहा |
अंगूर अमरख आम अमृत,फल भराऊ थाल में |
उत्तम अनुपम मोक्ष फल के, हेतु पुजू आज मैं || नव. ||
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो महा-मोक्ष-फल प्राप्ताये निर्वपामिति स्वाहा |
जल गंध अक्षत पुष्प चारू, दीप सुधूप फलार्घ ले |
दर रत्नत्रय निधि लाभ यह बस अर्घ से पूजत मिले || नव. ||
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताये अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |
दोहा-
जलधारा से नित्य में, जग में शांति हेत |
नव देवों को पूजहु, श्रद्धा भक्ति समेत ||
(शान्तये शांतिधारा)
नानाविधि के सुमन ले,मन में बहु हर्षाय |
मैं पुजू नव देवता पुष्पांजलि चढ़ाय ||
(दिव्य पुष्पांजलि)
जाप
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो नमः |
(९,२७ या १०८ बार )
जयमाला
चिच्चिन्तामणी रत्न, तीन लोक में श्रेष्ठ हो |
गाऊं गुण मणिमाल, जयवन्ते, वंदो सदा ||
जय जय श्री अरिहंत देव देव हमारे |
जय घातिया को घात सकल जंतु उबारे ||१||
जय जय प्रसिद्द सिद्ध की मैं वंदना करू |
जय अष्ट कर्म मुक्ति की मैं अर्चना करू ||२||
आचार्य देव गुण छत्तीस धार रहे हैं |
दिक्षादी दे असंख्य भव्य तार रहे हैं ||
जैवन्त उपाध्याय गुरु ज्ञान के धनी |
सन्मार्ग के उपदेश की वर्षा करे धनी ||३||
जय साधू अठाईस गुणों धरें सदा |
निज आत्मा की साधना से च्युत न हो कदा ||
ये पञ्च परम देव सदा वन्द्द्य हमारे |
संसार विषय सिन्धु से हमें भी उबारें ||४||
जिन धर्म चक्र सदा चलता ही रहेगा |
जो इसकी शरण ले वो सदा सुलझता ही रहेगा ||
इसकी ध्वनि पियूष का जो पान करेंगे |
भव रोग दूर कर वो मुक्ति कान्त बनेंगे ||५||
जिन चैत्य की जो वंदन त्रिकाल करे हैं |
वे चित्स्वरूप नित्य आत्म लाभ करे हैं ||
कृतिम अक्रतिम जिनालयो को जो भजे |
वे कर्म शत्रु जीत शिवालय में जा बसे ||६||
नवदेवताओ की जो नित आराधना करे |
वे म्रत्युराज की भी तो विराधना करे ||
मैं कर्म शत्रु जीतने के हेतु ही जजू |
सम्पूर्ण ज्ञानमती सिद्धि हेतु ही भजु ||७||
दोहा-
नव देवों की भक्तिवश,कोटि कोटि प्रणाम |
भक्ति का फल मैं चहुँ, निज पद में विश्राम ||८||
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो जयमाला पूर्णार्धं निर्वपामिति स्वाहा
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से नव देवताओं की भक्ति करे |
वे सब अमंगल दोष हर, सुख शांति में झुला करें ||
नवनिधि अतुल भण्डार ले, फिर मोक्ष सुख भी पावते |
सुख सिन्धु में हो मग्न फिर, यहाँ पर कभी न आवते ||९||
इत्याशिर्वादः
|| पुष्पांजलि क्षिपेत ||
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