Posted on 03-Jun-2020 02:18 PM
कवि श्री द्यानतराय
(पूजन विधि निर्देश)
(सोरठा छन्द)
परम पूज्य चौबीस, जिहँ जिहँ थानक शिव गये |
सिद्धभूमि निश-दीस, मन वच तन पूजा करूं ||
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति-तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्राणि! अत्र अवतर अवतर संवौषट्! (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति-तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्राणि! अत्र तिष्ट तिष्ट ठ: ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति-तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्राणि! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)।
(गीता-छन्द)
शुचि क्षीर-दध-सम नीर निरमल, कनक-झारी में भरूं |
संसार पार उतार स्वामी, जोर-कर विनती करूं ||
सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |
पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति-तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्य जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
केसर कपूर सुगंध चंदन, सलिल शीतल विस्तरूं |
भव-ताप को संताप मेटो, जोर-कर विनती करूं ||
सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |
पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
मोती-समान अखंड तंदुल, अमल आनंद धरि तरूं |
औगुन-हरो गुन करो हमको, जोर-कर विनती करूं ||
सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |
पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।
शुभफूल-रास सुवास-वासित, खेद सब मन को हरूं |
दु:ख-धाम-काम विनाश मेरो, जोर कर विनती करूं ||
सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |
पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
नेवज अनेक प्रकार जोग, मनोग धरि भय परिहरूं |
मम भूख-दूखन टार प्रभुजी, जोर कर विनती करूं ||
सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |
पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
दीपक-प्रकाश उजास उज्ज्वल, तिमिर सेती नहिं डरूं |
संशय-विमोह-विभरम-तम हर, जोर कर विनती करूं ||
सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |
पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
शुभ-धूप परम-अनूप पावन, भाव-पावन आचरूं |
सब करम-पुंज जलाय दीज्यो, जोर-कर विनती करूं ||
सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |
पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
बहु फल मँगाय चढ़ाय उत्तम, चार-गति सों निरवरूं |
निहचै मुकति-फल देहु मोको, जोर कर विनती करूं ||
सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |
पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
जल गंध अक्षत फूल चरु फल, दीप धूपायन धरूं |
‘द्यानत’ करो निर्भय जगत् सों, जोड़ कर विनती करूं ||
सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |
पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
जयमाला
(सोरठा)
श्री चौबीस जिनेश, गिरि कैलासादिक नमूं |
तीरथ महाप्रदेश, महापुरुष निरवाण तें ||१||
(चौपाई 16 मात्रा)
नमूं ऋषभ कैलास-पहारं, नेमिनाथ गिरनार निहारं |
वासुपूज्य चंपापुर वंदूँ, सन्मति पावापुर अभिनंदूं ||२||
वंदूं अजित अजित पद-दाता, वंदूं संभव भव-दु:ख-घाता |
वंदूं अभिनंदन गुणनायक, वंदूं सुमति सुमति के दायक ||३||
वंदूं पदम मुकति-पदमाकर, वंदूं सुपास आश-पासाहर |
वंदूं चंद्रप्रभ प्रभु चंदा, वंदूं सुविधि सुविधि-निधि-कंदा ||४||
वंदूं शीतल अघ-तप-शीतल, वंदूं श्रेयांस श्रेयांस-महीतल |
वंदूं विमल विमल-उपयोगी, वंदूं अनंत अनंत-सुखभोगी ||५||
वंदूं धर्म धर्म-विस्तारा, वंदूं शांति शांति-मन-धारा |
वंदूं कुंथु कुंथ-रखवालं, वंदूं अर अरि-हर गुणमालं ||६||
वंदूं मल्लि काम-मल-चूरन, वंदूं मुनिसुव्रत व्रत-पूरन |
वंदूं नमि जिन नमित-सुरासुर, वंदूं पार्श्व पार्श्व-भ्रम-जग-हर ||७||
बीसों सिद्धभूमि जा ऊपर, शिखर सम्मेद-महागिरि भू पर |
भावसहित वंदे जो कोई, ताहि नरक-पशु-गति-नहिं होई ||८||
नरपति नृप-सुर-शक्र कहावें, तिहुँजग-भोग भोगि शिव पावें |
विघन-विनाशन मंगलकारी, गुण-विलास वंदूं भवतारी ||९||
(दोहा)
जो तीरथ जावे पाप मिटावे, ध्यावे गावे भगति करे |
ताको जस कहिये संपति लहिये, गिरि के गुण को बुध उचरे ||
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्य: जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
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