निर्वाण क्षेत्र पूजन (द्यानतराय)



कवि श्री द्यानतराय

(पूजन विधि निर्देश)

 

(सोरठा छन्द)

परम पूज्य चौबीस, जिहँ जिहँ थानक शिव गये |

सिद्धभूमि निश-दीस, मन वच तन पूजा करूं ||

ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति-तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्राणि! अत्र अवतर अवतर संवौषट्! (आह्वाननम्)

ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति-तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्राणि! अत्र तिष्ट तिष्ट ठ: ठ:! (स्थापनम्)

ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति-तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्राणि! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)।

 

(गीता-छन्द)

शुचि क्षीर-दध-सम नीर निरमल, कनक-झारी में भरूं |

संसार पार उतार स्वामी, जोर-कर विनती करूं ||

सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |

पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||

ह्रीं श्री चतुर्विंशति-तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्य जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

 

केसर कपूर सुगंध चंदन, सलिल शीतल विस्तरूं |

भव-ताप को संताप मेटो, जोर-कर विनती करूं ||

सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |

पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||

ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

 

मोती-समान अखंड तंदुल, अमल आनंद धरि तरूं |

औगुन-हरो गुन करो हमको, जोर-कर विनती करूं ||

सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |

पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||

ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।

 

शुभफूल-रास सुवास-वासित, खेद सब मन को हरूं |

दु:ख-धाम-काम विनाश मेरो, जोर कर विनती करूं ||

सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |

पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||

ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

 

नेवज अनेक प्रकार जोग, मनोग धरि भय परिहरूं |

मम भूख-दूखन टार प्रभुजी, जोर कर विनती करूं ||

सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |

पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||

ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

 

दीपक-प्रकाश उजास उज्ज्वल, तिमिर सेती नहिं डरूं |

संशय-विमोह-विभरम-तम हर, जोर कर विनती करूं  ||

सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |

पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||

ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।

 

शुभ-धूप परम-अनूप पावन, भाव-पावन आचरूं |

सब करम-पुंज जलाय दीज्यो, जोर-कर विनती करूं ||

सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |

पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||

ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।

 

बहु फल मँगाय चढ़ाय उत्तम, चार-गति सों निरवरूं |

निहचै मुकति-फल देहु मोको, जोर कर विनती करूं ||

सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |

पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||

ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।

 

जल गंध अक्षत फूल चरु फल, दीप धूपायन धरूं |

‘द्यानत’ करो निर्भय जगत् सों, जोड़ कर विनती करूं ||

सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |

पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||

ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।

 

जयमाला

 

(सोरठा)

श्री चौबीस जिनेश, गिरि कैलासादिक नमूं |

तीरथ महाप्रदेश, महापुरुष निरवाण तें ||१||

 

(चौपाई 16 मात्रा)

नमूं ऋषभ कैलास-पहारं, नेमिनाथ गिरनार निहारं |

वासुपूज्य चंपापुर वंदूँ, सन्मति पावापुर अभिनंदूं ||२||

 

वंदूं अजित अजित पद-दाता, वंदूं संभव भव-दु:ख-घाता |

वंदूं अभिनंदन गुणनायक, वंदूं सुमति सुमति के दायक ||३||

 

वंदूं पदम मुकति-पदमाकर, वंदूं सुपास आश-पासाहर |

वंदूं चंद्रप्रभ प्रभु चंदा, वंदूं सुविधि सुविधि-निधि-कंदा ||४||

 

वंदूं शीतल अघ-तप-शीतल, वंदूं श्रेयांस श्रेयांस-महीतल |

वंदूं विमल विमल-उपयोगी, वंदूं अनंत अनंत-सुखभोगी ||५||

 

वंदूं धर्म धर्म-विस्तारा, वंदूं शांति शांति-मन-धारा |

वंदूं कुंथु कुंथ-रखवालं, वंदूं अर अरि-हर गुणमालं ||६||

 

वंदूं मल्लि काम-मल-चूरन, वंदूं मुनिसुव्रत व्रत-पूरन |

वंदूं नमि जिन नमित-सुरासुर, वंदूं पार्श्व  पार्श्व-भ्रम-जग-हर ||७||

 

बीसों सिद्धभूमि जा ऊपर, शिखर सम्मेद-महागिरि भू पर |

भावसहित वंदे जो कोई, ताहि नरक-पशु-गति-नहिं होई ||८||

 

नरपति नृप-सुर-शक्र कहावें, तिहुँजग-भोग भोगि शिव पावें |

विघन-विनाशन मंगलकारी, गुण-विलास वंदूं भवतारी ||९||

 

(दोहा)

जो तीरथ जावे पाप मिटावे, ध्यावे गावे भगति करे |

ताको जस कहिये संपति लहिये, गिरि के गुण को बुध उचरे ||

ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति -तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्य: जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।