Posted on 13-Jun-2020 08:46 PM
कविश्री द्यानतरायजी
(गीता छन्द)
तीर्थंकरों के न्हवन-जल तें, भये तीरथ शर्मदा |
ता तें प्रदच्छन देत सुर-गन, पंच-मेरुन की सदा ||
दो-जलधि ढाई-द्वीप में, सब गनत-मूल विराजहीं |
पूजूं अस्सी-जिनधाम-प्रतिमा, होहि सुख दुःख भाजहीं ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिन चैत्यालयस्थ जिन प्रतिमा समूह! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिन चैत्यालयस्थ जिन प्रतिमा समूह! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ!: ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिन चैत्यालयस्थ जिन प्रतिमा समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)
(चौपाई आंचलीबद्ध)
शीतल मिष्ट सुवास मिलाय, जल सों पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूं प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री सुदर्शन-विजय-अचल-मंदर-विद्युन्मालि-पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्य: जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
जल केशर करपूर मिलाय, गंध सों पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूँ प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्य: संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
अमल अखंड सुगंध सुहाय, अच्छत सों पूजूं जिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूं प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।
वरन अनेक रहे महकाय, फूल सों पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूँ प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
मनवाँछित बहु तुरत बनाय, चरु सों पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूँ प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: क्षुधारोग- विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
तम-हर उज्ज्वल-ज्योति जगाय, दीप सों पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूँ प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
खेऊँ अगर अमल अधिकाय, धूप सों पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूँ प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
सुरस सुवर्ण सुगंध सुभाय, फल सों पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूँ प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
आठ दरबमय अरघ बनाय, ‘द्यानत’ पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूँ प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
जयमाला
(सोरठा छन्द)
प्रथम सुदर्शन-स्वामि, विजय अचल मंदर कहा |
विद्युन्माली नामि, पंचमेरु जग में प्रगट ||
(केसरी छन्द)
प्रथम सुदर्शन मेरु विराजे, भद्रशाल वन भू पर छाजे |
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||१||
ऊपर पंच-शतक पर सोहे, नंदन-वन देखत मन मोहे |
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||२||
साढ़े बांसठ सहस ऊंचाई, वन-सुमनस शोभे अधिकाई|
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||३||
ऊँचा जोजन सहस-छतीसं, पांडुक-वन सोहे गिरि-सीसं |
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||४||
चारों मेरु समान बखाने, भू पर भद्रशाल चहुँ जाने |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||५||
ऊँचे पाँच शतक पर भाखे, चारों नंदनवन अभिलाखे |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||६||
साढ़े पचपन सहस उतंगा, वन-सोमनस चार बहुरंगा |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||७||
उच्च अठाइस सहस बताये, पांडुक चारों वन शुभ गाये |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||८||
सुर नर चारन वंदन आवें, सो शोभा हम किह मुख गावें |
चैत्यालय अस्सी सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||९||
(दोहा)
पंच-मेरु की आरती, पढ़े सुने जो कोय |
‘द्यानत’ फल जाने प्रभू, तुरत महासुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्य: जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
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