Posted on 08-May-2020 09:49 PM
देव-शास्त्र-गुरु नमन करि, बीस तीर्थंकर ध्याय |
सिद्ध शुद्ध राजत सदा, नमून चित्त हुलसाय ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! श्री विद्यमान विंशति तीर्थकर समूह! अनंतानंत सिद्ध परमेष्ठी समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट आह्वाह्न्म |
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! श्री विद्यमान विंशति तीर्थकर समूह! अनंतानंत सिद्ध परमेष्ठी समूह!! अत्र तिष्ठ: ठ: ठ: स्थापनम |
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! श्री विद्यमान विंशति तीर्थकर समूह! अनंतानंत सिद्ध परमेष्ठी समूह!! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट सन्निधिकरणम |
अनादिकल से जग में स्वामिन जल से शुचिता को माना |
शुद्ध निजातम सम्यक, रत्नत्रयनिधि की नहिं पहचाना ||
अब निर्मल रत्नत्रय जल ले, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ |
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य:, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थकरेभ्य:, श्री अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा |
भाव आताप मिटावन की निज में ही क्षमता समता है |
अनजाने ही अब तक मैंने पर में की झूठी ममता है ||
चन्दन सम शीतलता पाने, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ |
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य:, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थकरेभ्य:, श्री अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीभ्य: भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा |
अक्षयपद बिन फिरा जगत की, लख चौरासी योनि में |
अष्टकर्म के नाश करन को, अक्षत तुम ढिंग लाया मैं ||
अक्षयनिधि निज पाने अब, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ |
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य:, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थकरेभ्य:, श्री अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा ।
पुष्प सुगंधी से आत्म ने, शील स्वभाव नशाया है |
मन्मथ बाणों से बिंध करके, चहूँगति दुख उपजाया है ||
स्थिरता निज में पाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ |
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य:, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थकरेभ्य:, श्री अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
षटरस मिश्रित भोजन से, ये भूख न मेरी शांत हुई |
आतमरस अनुपम चखने से, इन्द्रिय मन इच्छा शमन हुई ||
सर्वथा भूख मेटन को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ |
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य:, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थकरेभ्य:, श्री अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यम निर्वपामीति स्वाहा ।
जड़दीप विनश्वर को, अब तक समझा था मैंने उजियारा |
निजगुण दरशायक ज्ञान दीप से, मिटा मोह का अँधियारा ||
ये दीप समर्पित करके मैं, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ |
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य:, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थकरेभ्य:, श्री अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीभ्य: मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
ये धुप अनल में खेने में, कर्मों को नहीं जलायेगी |
निज में निज की शक्ति ज्वाला, जो राग द्वेष नशायेगी ||
उस शक्ति धन प्रगटाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ |
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य:, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थकरेभ्य:, श्री अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
पिस्ता, बादाम, श्रीफल, लवंग चरणन तुम ढिग मैं ले आया |
आतमरस भीने निजगुण फल, मम मन अब उनमें ललचाया ||
अब मोक्ष महाफल पाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ |
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य:, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थकरेभ्य:, श्री अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
अष्टम सुधा पाने को, कर में ये आठो द्रव्य लिए |
सहजशुद्ध स्वाभाविकता से, निज में निजगुण प्रकट किये ||
ये अर्घ्य समर्पण करके, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ |
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य:, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थकरेभ्य:, श्री अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
(दोहा)
देव-शास्त्र-गुरु बीस तीर्थकर, सिद्ध प्रभु भगवान |
अब बरनू जयमालिका , करूं स्तवन गुणगान ||
(भुजंगप्रयात)
नसे घतिया कर्म जू अर्हन्त देवा, करें सुर असुर नर मुनि नित्य सेवा |
दरश ज्ञान सुख बल अनंत के स्वामी, छियालीस गुण युक्त महा ईश नामी ||
तेरी दिव्य वाणी सदा भव्य मानी, महा मोह विध्वन्सिनी मोक्षदानी |
अनेकांतमाय द्वादशांग बखानी, नमो लोक माता श्री जैनवाणी ||
विरागी आचारज उवज्झाय साधू, दरश ज्ञान भंडार समता अराधू |
नगन वेशधारी सु एकाविहारी, निजानन्द मंडित मुकति पथ प्रचारी ||
विदेह क्षेत्र में तीर्थंकर बीस राजें, विहरमान वंदूं सभी पाप भाजें |
नमून सिद्ध निर्भय निरामय सुधामी, अनाकुल समाधान सहजाभिरामी ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य:, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थकरेभ्य:, श्री अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये
जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
देव-शास्त्र-गुरु बीस तीर्थंकर सिद्ध हृदय बीच धरले रे |
पूजन ध्यान गान गुण करके भवसागर जिय तरले रे ||
इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलि क्षिपेत
(जोगीरासा छन्द)
भूत-भविष्यत्-वर्तमान की, तीस चौबीसी मैं ध्याऊँ |
चैत्य-चैत्यालय कृत्रिमाकृत्रिम, तीन-लोक के मन लाऊँ ||
ॐ ह्रीं त्रिकालसम्बन्धी तीस चौबीसी, त्रिलोकसम्बन्धी कृत्रिमाकृत्रिम चैत्य-चैत्यालयेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्यभक्ति आलोचन चाहूँ कायोत्सर्ग अघनाशन हेत |
कृत्रिमा-कृत्रिम तीन लोक में, राजत हैं जिनबिम्ब अनेक ||
चतुर निकाय के देव जजैं, ले अष्टद्रव्य निज-भक्ति समेत |
निज-शक्ति अनुसार जजूँ मैं, कर समाधि पाऊँ शिव-खेत ||
ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धी समस्त-कृत्रिमाकृत्रिम जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्व-मध्य-अपराह्न की बेला, पूर्वाचार्यों के अनुसार |
देव-वंदना करूँ भाव से, सकल-कर्म की नाशनहार ||
पंच महागुरु सुमिरन करके, कायोत्सर्ग करूँ सुखकार |
सहज स्वभाव शुद्ध लख अपना, जाऊँगा अब मैं भवपार ||
अथ पौर्वाह्निक/माध्याह्निक/अपराह्निक देववंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकल-कर्मक्षयार्थं कायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(पुष्पांजलि क्षेपण कर नौ बार णमोकार मंत्र जपें)
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