श्री चंद्रप्रभु जी जिन पूजा



चारुचरन आचरन, चरन चितहरन चिन्ह चर |

चंद-चंद-तनचरित, चंद थल चहत चतुर नर ||

चतुक चंड चकचूरि, चारि चिद्चक्र गुनाकर |

चंचल चलित सुरेश, चूलनुत चक्र-धनुरर ||

चर अचर हितू तारन तरन, सुनत चहकि चिर नंद शुचि |

जिनचंद चरन चरच्यो चहत, चितचकोर नचि रच्चि रुचि |1|

 धनुष डेढ़ सौ तुंग तन, महासेन नृपनंद |

मातु लछमना उर जये, थापौं चंद जिनंद ||

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् |

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |

 

 गंगाह्रद निरमल नीर, हाटक भृंग भरा |

तुम चरन जजौं वरवीर, मेटो जनम जरा ||

श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगे |

मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ||

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1|

 

श्रीखण्ड कपूर सुचंग, केशर रंग भरी |

घसि प्रासुक जल के संग, भवआताप हरी ||श्री0

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2|

 

तंदुल सित सोम समान, सो ले अनियारे |

दिये पुंज मनोहर आन, तुम पदतर प्यारे ||श्री0

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3|

 

सुर द्रुम के सुमन सुरंग, गंधित अलि आवे |

तासों पद पूजत चंग, कामबिथा जावे ||श्री0

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4|

 

नेवज नाना परकार, इंद्रिय बलकारी |

सो ले पद पूजौं सार, आकुलता-हारी ||श्री0

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5|

 

तम भंजन दीप संवार, तुम ढिग धारतु हौं |

मम तिमिरमोह निरवार, यह गुण धारतु हौं ||श्री0

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6|

 

दसगंध हुतासन माहिं, हे प्रभु खेवतु हौं |

मम करम दुष्ट जरि जाहिं, या तें सेवतु हौं ||श्री0

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7|

 

अति उत्तम फल सु मंगाय, तुम गुण गावतु हौं |

पूजौं तनमन हरषाय, विघन नशावतु हौं ||श्री0

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8|

 

सजि आठों दरब पुनीत, आठों अंग नमौं |

पूजौं अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गमौं ||श्री0

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9|

 

पंच कल्याणक अर्घ्यावली

कलि पंचम चैत सुहात अली, गरभागम मंगल मोद भरी |

हरि हर्षित पूजत मातु पिता, हम ध्यावत पावत शर्वसिता ||

ॐ ह्रीं चैत्रकृष्ण पंचम्यांगर्भमंगल प्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि0 |1|

 

कलि पौष एकादशि जन्म लयो, तब लोकविषै सुख थोक भयो |

सुरईश जजैं गिरशीश तबै, हम पूजत हैं नुत शीश अबै ||

ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममंगल प्राप्ताय श्रीचन्द्र0जि0अर्घ्यं नि0 |2|

 

तप दुद्धर श्रीधर आप धरा, कलि पौष ग्यारसि पर्व वरा |

निज ध्यान विषै लवलीन भये, धनि सो दिन पूजत विघ्न गये ||

ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपः कल्याणक प्राप्ताय श्रीचन्द्र0जि0अर्घ्यं नि0 |3|

 

वर केवल भानु उद्योत कियो, तिहुंलोकतणों भ्रम मेट दियो |

कलि फाल्गुन सप्तमि इंद्र जजें, हम पूजहिं सर्व कलंक भजें ||

ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा सप्तम्यां केवलज्ञान प्राप्ताय श्रीचन्द्र0जि0अर्घ्यं नि0 |4|

 

सित फाल्गुन सप्तमि मुक्ति गये, गुणवंत अनंत अबाध भये |

हरि आय जजे तित मोद धरे, हम पूजत ही सब पाप हरे ||

ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्ला सप्तम्यां मोक्षमंगल प्राप्ताय श्रीचन्द्र0जि0अर्घ्यं नि0 |5|

 

जयमाला

दोहा

हे मृगांक अंकित चरण, तुम गुण अगम अपार |

गणधर से नहिं पार लहिं, तौ को वरनत सार |1|

पै तुम भगति हिये मम, प्रेरे अति उमगाय |

तातैं गाऊं सुगुण तुम, तुम ही होउ सहाय |2|

 

जय चंद्र जिनेंद्र दयानिधान, भवकानन हानन दव प्रमान |

जय गरभ जनम मंगल दिनंद, भवि-जीव विकाशन शर्म कन्द |3|

 

दशलक्ष पूर्व की आयु पाय, मनवांछित सुख भोगे जिनाय |

लखि कारण ह्वै जगतैं उदास, चिंत्यो अनुप्रेक्षा सुख निवास |4|

 

तित लोकांतिक बोध्यो नियोग, हरि शिविका सजि धरियो अभोग |

तापै तुम चढ़ि जिनचंदराय, ताछिन की शोभा को कहाय |5|

 

जिन अंग सेत सित चमर ढार, सित छत्र शीस गल गुलक हार |

सित रतन जड़ित भूषण विचित्र, सित चन्द्र चरण चरचें पवित्र |6|

 

सित तनद्युति नाकाधीश आप, सित शिविका कांधे धरि सुचाप |

सित सुजस सुरेश नरेश सर्व, सित चित्त में चिंतत जात पर्व |7|

 

सित चंद नगर तें निकसि नाथ, सित वन में पहुचे सकल साथ |

सित शिला शिरोमणि स्वच्छ छाँह, सित तप तित धार्यो तुम जिनाह |8|

 

सित पय को पारण परम सार, सित चंद्रदत्त दीनों उदार |

सित कर में सो पय धार देत, मानो बांधत भवसिंधु सेत |9|

 

मानो सुपुण्य धारा प्रतच्छ, तित अचरज पन सुर किय ततच्छ |

फिर जाय गहन सित तप करंत, सित केवल ज्योति जग्यो अनन्त |10|

 

लहि समवसरण रचना महान, जा के देखत सब पाप हान |

जहँ तरु अशोक शोभै उतंग, सब शोक तनो चूरै प्रसंग |11|

 

सुर सुमन वृष्टि नभ तें सुहात, मनु मन्मथ तजि हथियार जात |

बानी जिनमुख सों खिरत सार, मनु तत्व प्रकाशन मुकुर धार |12|

 

जहँ चौंसठ चमर अमर ढुरंत, मनु सुजस मेघ झरि लगिय तंत |

सिंहासन है जहँ कमल जुक्त, मनु शिव सरवर को कमल शुक्ल |13|

 

दुंदुभि जित बाजत मधुर सार, मनु करमजीत को है नगार |

सिर छत्र फिरै त्रय श्वेत वर्ण, मनु रतन तीन त्रय ताप हर्ण |14|

 

तन प्रभा तनो मंडल सुहात, भवि देखत निज भव सात सात |

मनु दर्पण द्युति यह जगमगाय, भविजन भव मुख देखत सु आय |15|

 

इत्यादि विभूति अनेक जान, बाहिज दीसत महिमा महान |

ताको वरणत नहिं लहत पार, तो अंतरंग को कहै सार |16|

 

अनअंत गुणनिजुत करि विहार, धरमोपदेश दे भव्य तार |

फिर जोग निरोध अघातिहान, सम्मेदथकी लिय मुकतिथान |17|

 

वृन्दावन वंदत शीश नाय, तुम जानत हो मम उर जु भाय |

ता तें का कहौं सु बार बार, मनवांछित कारज सार सार |18|

 

जय चंद जिनंदा, आनंदकंदा, भवभयभंजन राजैं हैं |

रागादिक द्वंदा, हरि सब फंदा, मुकति मांहि थिति साजैं हैं |19|

ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेद्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |

 आठों दरब मिलाय गाय गुण, जो भविजन जिनचंद जजें |

ता के भव-भव के अघ भाजें, मुक्तिसार सुख ताहि सजें ||

जम के त्रास मिटें सब ताके, सकल अमंगल दूर भजें |

वृन्दावन ऐसो लखि पूजत, जा तें शिवपुर राज रजें ||

इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)