Posted on 02-Jan-2021 08:26 PM
पदम-राग-मनि-वरन-धरन, तनतुंग अढ़ाई |
शतक दंड अघखंड, सकल सुर सेवत आई ||
धरनि तात विख्यात सुसीमा जूके नंदन |
पदम चरन धरि राग सुथापौं इत करि वंदन ||
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्रावतर अवतर संवौषट् |
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |
पूजौं भाव सों, श्री पदमनाथपद सार, पूजौं भाव सों | टेक |
गंगाजल अति प्रासुक लीनों, सौरभ सकल मिलाय |
मन वचन तन त्रयधार देत ही, जनम जरामृतु जाय |
पूजौं भाव सों, श्री पदमनाथ पदसार, पूजौं भाव सों ||
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1|
मलयागर कपूर चंदन घसि, केशर रंग मिलाय |
भवतपहरन चरन पर वारौं, मिथ्याताप मिटाय |पूजौं0
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2|
तंदुल उज्ज्वल गंध अनी जुत, कनक थार भर लाय |
पुंज धरौं तुव चरनन आगे, मोहि अखयपद दाय |पूजौं0
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3|
पारिजात मंदार कल्पतरु-जनित, सुमन शुचि लाय |
समरशूल निरमूलकरनकों, तुम पद पद्म चढ़ाय | पूजौ0
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4|
घेवर बावर आदि मनोहर, सद्य सजे शुचि लाय |
क्षुधा रोग निर्वाशन कारन, जजौं हरष उर लाय |पूजौं0
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5|
दीपक ज्योति जगाय ललित वर, धूम रहित अभिराम |
तिमिर मोह नाशन के कारन, जजौं चरन गुनधाम |पूजौं0
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6|
कृष्णागर मलयागर चंदन, चूर सुगंध बनाय |
अगनि माहिं जारौं तुम आगे, अष्टकर्म जरि जाय |पूजौं0
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7|
सुरस वरन रसना मन भावन, पावन फल अधिकार |
तासों पूजौं जुगम चरन यह, विघम करम निरवार |पूजौं0
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8|
जल फल आदि मिलाय गाय गुन, भगति भाव उमगाय |
जजौं तुमहिं शिवतिय वर जिनवर, आवागमन मिटाय |पूजौं0
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9|
पंच कल्याणक अर्घ्यावली
असित माघ सु छट्ठी बखानिये, गरभमंगल तादिन मानिये |
ऊरध ग्रीवक सोंचय राज जी, जजत इन्द्र जजैं हम आज जी ||
ॐ ह्रीं माघकृष्ण षष्ठीदिने गर्भ मंगल प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेनद्राय अर्घ्यं नि0स्वाहा |1|
सुकल कार्तिक तेरस को जये, त्रिजग जीव सुआनंद को लये |
नगर स्वर्ग समान कुसंविका, जजतु हैं हरिसंजुत अंबिका ||
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्ल त्रयोदश्यां जन्ममंगल प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिने0 अर्घ्यं |2|
सुकल तेरस कार्तिक भावनी, तप धर्यो वन षष्टम पावनी |
करत आतमध्यान धुरंधरो, जजत हैं हम पाप सबै हरो ||
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्ल त्रयोदश्यां निःक्रमणकल्याण प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिने0 अर्घ्यं |3|
सुकल पूनम चैत सुहावनी, परम केवल सो दिन पावनी |
सुर सुरेश नरेश जजें तहां, हम जजें पद पंकज को इहां ||
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ल पूर्णिमायां केवलज्ञान प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिने0 अर्घ्यं |4|
असित फागुन चौथि सुजानियो, सकलकर्म महारिपु हानियो |
गिरसमेद थकी शिव को गये, हम जजें पद ध्यानविषै लये ||
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्ण चतुर्थीदिने मोक्षमंगल मण्डिताय श्रीपद्मप्रभ जिने0 अर्घ्यं |5|
जयमाला
जय पद्मजिनेशा शिवसद्मेशा, पाद पद्म जजि पद्मेशा |
जय भव तम भंजन, मुनिमम कंजन, रंजन को दिव साधेसा |1|
चौपाई
जय-जय जिन भविजन हितकारी, जय जय जिन भवसागर तारी |
जय जय समवसरन धन धारी, जय जय वीतराग हितकारी |2|
जय तुम सात तत्त्व विधि भाख्यौ, जय जय नवपदार्थ लखिआख्यो |
जय षट्द्रव्य पंच युतकाय, जय सब भेद सहित दरशाया |3|
जय गुनथान जीव परमानो, जय पहिले संख्यात जिव जानो |
जय दूजे सासादन माहीं, बावन कोटि जीव थित आहीं |4|
जय तीजे मिश्रित गुणथाने, चार अधिक शत कोडी सदिवा |
जय चौथे अविरतिगुन जीवा, कोड़ि सातसो है थिति वेशा |5|
जय जिय देशविरत में शेषा, तेरह कोडी जिव सुप्रमाना |
जय प्रमत्त षट्शून्य दोय वसु, नव तीन नव पांच जीवलसु |6|
जय जय अपरमत्त द्विकोड़ी, लक्ष छानवै सहस बहोरं |
निन्यानवे एकशत तीनो, ऐते मुनि तित रहहिं प्रवीना |7|
जय जय अष्टम में दुइ धारा, आठ शतक सत्तानों सारा |
जय इतने इतने हितकारी, नवें दशें जुगश्रेणी धारी |8|
उपशम में दुइ सौ निन्यानों, छपक माहिं तसु दूने जा |
जय ग्यारें उपशम मगगामी, दुइसौ निन्यानौं अधगामी |9|
जय जय छीनमोह गुनथानो, मुनि शत पांच अधिक अट्ठानों |
जय जय तेरह में अरहंता, जुग नभएक नव नव वसु तंता |10|
एते राजतु हैं चतुरानन, हम वंदें पद थुतिकरि आनन |
हैं अजोग गुन में जे देवा, अठ नव पंच करों सुसेवा |11|
तित तिथि अ इ उ ऋ लृ भाषत, करिथित फिर शिव आनंद चाखत |
ऐ उतकृष्ट सकल गुनथानी, तथा जघन मध्यम जे प्रानी |12|
तीनों लोक सदन के वासी, निजगुन परज भेदमय राशी |
तथा और द्रव्यन के जेते, गुन परजाय भेद हैं तेते |13|
तीनों कालतने जु अनंता, सो तुम जानत जुगपत संता |
सोई दिव्य वचन के द्वारे, दे उपदेश भविक उद्धारे |14|
फेरी अचल थल बासा कीनो, गुन अनंत निजआनंद भीनो |
चरम देह तें किंचित ऊनो, नर आकृति तित ह्वै नित गूनो |15|
जय जय सिद्धदेव हितकारी, बार बार यह अरज हमारी |
मोकों दुखसागर तें काढ़ो, वृन्दावन जांचतु है ठाड़ो |16|
(छंद : घत्तानन्द)
जय जय जिनचंदा पद्मानंदा, परम सुमति पद्माधारी |
जय जनहितकारी दयाविचारी, जय जय जिनवर अविकारी ||
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |
(छंद : रोड़क)
जजत पद्म पद पद्म सद्म ताके सुपद्म अत |
होत वृद्धि सुत मित्र सकल आनंदकंद शत ||
लहत स्वर्गपदराज, तहाँ तें चय इत आई |
चक्री को सुख भोगि, अंत शिवराज कराई ||
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
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