Posted on 25-May-2020 08:36 PM
कवि श्री बख्तावरसिंह
(गीता छन्द)
वर स्वर्ग प्राणत सों विहाय सुमात वामा-सुत भये |
अश्वसेन के पारस जिनेश्वर चरन जिनके सुर नये ||
नव-हाथ-उन्नत तन विराजे उरग-लच्छन अति लसें |
थापूँ तुम्हें जिन आय तिष्ठो! करम मेरे सब नसें ||
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (इति सन्निधिरणम्)
(चामर छन्द)
क्षीर-सोम के समान अम्बु-सार लाय के |
हेमपात्र धारि के सु आपको चढ़ाय के ||
पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा |
दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ||
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। ।१।
चंदनादि केशरादि स्वच्छ गंध लेय के |
आप चर्ण चर्चुं मोह-ताप को हनीजिये ||
पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा |
दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ||
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय भवताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। ।२।
फेन चंद्र के समान अक्षतान् लाय के |
चर्ण के समीप सार पुंज को रचाय के ||
पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा |
दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। ।३।
केवड़ा गुलाब और केतकी चुनाय के |
धार चर्ण के समीप काम को नशाय के ||
पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा |
दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वन्सनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ।४।
घेवरादि बावरादि मिष्ट सर्पि में सने |
आप चरण अर्चतें क्षुधादि रोग को हने ||
पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा |
दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ।५।
लाय रत्नदीप को सनेह पूर के भरूँ |
वातिका कपूर बारि मोह-ध्वांत को हरूँ ||
पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा |
दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ।६।
धूप गंध लेय के सुअग्नि-संग जारयै |
तास धूप के सुसंग अष्टकर्म बारयै ||
पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा |
दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ।७।
खारिकादि चिरभटादि रत्न-थाल में भरूँ |
हर्ष धारि के जजूँ सुमोक्ष सौख्य को वरूँ ||
पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा |
दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। ।८।
नीर गंध अक्षतान् पुष्प चारु लीजियै |
दीप धूप श्रीफलादि अर्घ तें जजीजियै ||
पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा |
दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। ।९।
पंचकल्याणक-अर्घ्यावली
शुभ प्राणत स्वर्ग विहाये, वामा माता उर आये |
बैशाख तनी दुति कारी, हम पूजें विघ्न-निवारी ||
ॐ ह्रीं वैशाख-कृष्ण-द्वितीयायां गर्भकल्याणक-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। ।१।
जनमे त्रिभुवन-सुखदाता, एकादशि पौष विख्याता |
श्यामा-तन अद्भुत राजै, रवि-कोटिक तेज सु लाजै ||
ॐ ह्रीं पौषकृष्ण-एकादश्यां जन्म कल्याणक-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। ।२।
कलि पौष एकादशि आई, तब बारह भावन भाई |
अपने कर लौंच सु कीना, हम पूजें चरन जजीना ||
ॐ ह्रीं पौषकृष्ण-एकादश्यां तपकल्याणक-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। ।३।
कलि चैत चतुर्थी आई, प्रभु केवलज्ञान उपाई |
तब प्रभु उपदेश जु कीना, भवि जीवन को सुख दीना ||
ॐ ह्रीं चैत्राकृष्ण-चतुर्थ्यां ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। ।४।
सित-सातें-सावन आई, शिव-नारि वरी जिनराई |
सम्मेदाचल हरि माना, हम पूजें मोक्ष-कल्याना ||
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ल-सप्तम्यां मोक्षकल्याणक-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। ।५।
जयमाला
(छन्द मत्तगयन्द)
पारसनाथ जिनेंद्र तने वच, पौन भखी जरते सुन पाये |
कर्यो सरधान लह्यो पद आन, भये पद्मावति-शेष कहाये ||
नाम-प्रताप टरें संताप, सुभव्यन को शिवशर्म दिखाये |
हो विश्वसेन के नंद भले! गुण गावत हैं तुमरे हर्षाये ||
(दोहा)
केकी-कंठ समान छवि, वपु उतंग नव-हाथ |
लक्षण उरग निहार पग, वंदूँ पारसनाथ ||१||
(मोतियादाम छन्द)
रची नगरी छह मास अगार, बने चहुँ गोपुर शोभ अपार |
सु कोट-तनी रचना छवि देत, कंगूरन पे लहकें बहु केत ||२||
बनारस की रचना जु अपार, करी बहु भाँति धनेश तैयार |
तहाँ विश्वसेन नरेन्द्र उदार, करे सुख वाम सु दे पटनार ||३||
तज्यो तुम प्राणत नाम विमान, भये तिनके वर नंदन आन |
तबै सुर-इंद्र नियोगनि आय, गिरीन्द्र करी विधि न्हौन सु जाय ||४||
पिता-घर सौंपि गये निजधाम, कुबेर करे वसु जाम जु काम |
बढ़े जिन दोज-मयंक समान, रमे बहु बालक निर्जर आन ||५||
भए जब अष्टम वर्ष कुमार, धरे अणुव्रत्त महा सुखकार |
पिता जब आन करी अरदास, करो तुम ब्याह वरो मम आस ||६||
करी तब नाहिं, रहे जगचंद, किये तुम काम कषाय जु मंद |
चढ़े गजराज कुमारन संग, सु देखत गंग-तनी सुतरंग ||७||
लख्यो इक रंक करे तप घोर, चहूँ दिसि अग्नि बलै अति जोर |
कहे जिननाथ अरे सुन भ्रात, करे बहु जीवन की मत घात ||८||
भयो तब कोप कहै कित जीव, जले तब नाग दिखाय सजीव |
लख्यो यह कारण भावन भाय, नये दिव-ब्रह्म ऋषि सुर आय ||९||
तबहिं सुर चार प्रकार नियोग, धरी शिविका निजकंध मनोग |
कियो वनमाँहिं निवास जिनंद, धरे व्रत चारित आनंदकंद ||१०||
गहे तहँ अष्टम के उपवास, गये धनदत्त तने जु अवास |
दियो पयदान महा सुखकार, भई पनवृष्टि तहाँ तिहिं बार ||११||
गये तब कानन माँहिं दयाल, धर्यो तुम योग सबहिं अघटाल |
तबै वह धूम सुकेतु अयान, भयो कमठाचर को सुर आन ||१२||
करै नभ गौन लखे तुम धीर, जु पूरब बैर विचार गहीर |
कियो उपसर्ग भयानक घोर, चली बहु तीक्षण पवन झकोर ||१३||
रह्यो दशहूँ दिश में तम छाय, लगी बहु अग्नि लखी नहिं जाय |
सु रुंडन के बिन मुण्ड दिखाय, पड़े जल मूसल धार अथाय ||१४||
तबै पद्मावति-कंत धनिंद, नये जुग आय जहाँ जिनचंद |
भग्यो तब रंक सु देखत हाल, लह्यो तब केवलज्ञान विशाल ||१५||
दियो उपदेश महाहितकार, सुभव्यनि बोधि सम्मेद पधार |
‘सुवर्णभद्र’ जहँ कूट प्रसिद्ध, वरी शिवनारि लही वसु-रिद्ध ||१६||
जजूँ तुव चरन दोउ कर जोर, प्रभू लखिये अब ही मम ओर |
कहे ‘बखतावर’ ‘रत्न’ बनाय, जिनेश हमें भव-पार लगाय ||१७||
(घत्ता)
जय पारस देवं, सुरकृत सेवं, वंदत चरण सुनागपती |
करुणा के धारी, पर उपकारी, शिवसुखकारी कर्महती ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(अडिल्ल)
जो पूजे मन लाय भव्य पारस प्रभु नित ही |
ताके दु:ख सब जाय भीति व्यापे नहि कित ही ||
सुख-संपति अधिकाय पुत्र-मित्रादिक सारे |
अनुक्रमसों शिव लहे, रत्न इमि कहें पुकारे ||
।।इत्याशीर्वाद: पु्ष्पांजलिं क्षिपेत्।।
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