Posted on 13-May-2020 04:39 PM
या भव-कानन में चतुरानन, पाप-पनानन घेरि हमेरी।
आतम-जानन मानन ठानन, बान न होन दर्इ सठ मेरी।।
तामद भानन आपहि हो, यह छान न आन न आनन टेरी।
आन गही शरनागत को, अब श्रीपतजी पत राखहु मेरी।।
ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् ! (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट्! (सन्निधिकरणम्)
(छन्द त्रिभंगी अनुप्रयासक, मात्रा १२ जगणवर्जित )
हिमगिरि-गत-गंगा, धार अभंगा, प्रासुक संगा भरि भृंगा।
जर-जनम-मृतंगा, नाशि अघंगा, पूजि पदंगा मृदु हिंगा।।
श्री शांति-जिनेशं, नुत-शक्रेशं, वृष-चक्रेशं चक्रेशं।
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
वर बावन-चंदन, कदली नंदन, घन-आनंदन-सहित घसूं।
भवताप-निकंदन, ऐरा-नंदन, वंदि अमंदन चरन वसूं।।
श्री शांति-जिनेशं, नुत-शक्रेशं, वृष-चक्रेशं चक्रेशं।
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
हिमकर करि लज्जत, मलय सुसज्जत, अच्छत जज्जत भरि थारी।
दु:ख-दारिद गज्जत, सदपद-सज्जत, भव-भय-भज्जत अतिभारी।।
श्री शांति-जिनेशं, नुत-शक्रेशं, वृष-चक्रेशं चक्रेशं।
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।
मंदार सरोजं, कदली जोजं, पुंज भरोजं मलय-भरं।
भरि कंचनथारी, तुम-ढिंग धारी, मदन-विदारी धीरधरं।।
श्री शांति-जिनेशं, नुत-शक्रेशं, वृष-चक्रेशं चक्रेशं।
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
पकवान नवीने, पावन कीने, षट्ररस भीने सुखदार्इ।
मन-मोदन हारे, छुधा विदारे, आगे धारे गुनगार्इ।।
श्री शांति-जिनेशं, नुत-शक्रेशं, वृष-चक्रेशं चक्रेशं।
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
तुम ज्ञान प्रकाशे, भ्रम-तम नाशे, ज्ञेय-विकासे सुख-रासे।
दीपक उजियारा, या तें धारा, मोह-निवारा निज भासे।।
श्री शांति-जिनेशं, नुत-शक्रेशं, वृष-चक्रेशं चक्रेशं।
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
चंदन करपूरं, करि वर-चूरं, पावक भूरं माहि जुरं।
तसु धूम उड़ावे, नाचत जावे, अलि गुंजावे मधुर सुरं।।
श्री शांति-जिनेशं, नुत-शक्रेशं, वृष-चक्रेशं चक्रेशं।
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
बादाम खजूरं, दाड़िम पूरं, निंबुक भूरं ले आयो।
ता सों पद जज्जूं, शिवफल सज्जूं, निजरस रज्जन उमगायो।।
श्री शांति-जिनेशं, नुत-शक्रेशं, वृष-चक्रेशं चक्रेशं।
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
वसु-द्रव्य सँवारी, तुम-ढिंग धारी, आनंदकारी, दृग-प्यारी।
तुम हो भवतारी, करुना-धारी, या तें थारी शरना री।।
श्री शांति-जिनेशं, नुत-शक्रेशं, वृष-चक्रेशं चक्रेशं।
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
पंचकल्याणक-अर्घ्यावली
(छन्द)
असित-सातयँ-भादव जानिये, गरभ-मंगल ता-दिन मानिये।
सचि कियो जननी-पद-चर्चनं, हम करें इत ये पद-अर्चनं।।
ॐ ह्रीं भाद्रपदकृष्ण-सप्तम्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
जनम जेठ-चतुर्दशि-श्याम है, सकल-इन्द्र सु आगत धाम है।
गजपुरै गज-साजि सबै तबै, गिरि जजे इत मैं जजिहूँ अबै।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्ण-चतुर्दश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
भव-शरीर-सुभोग असार हैं, इमि विचार तबै तप धार हैं।
भ्रमर-चौदसि-जेठ सुहावनी, धरम हेत जजूं गुन पावनी।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्ण-चतुर्दश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।३।
शुकल-पौष-दसैं सुखराश है, परम-केवलज्ञान प्रकाश है।
भव-समुद्र-उधारन देव की, हम करें नित मंगल-सेव ही।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्ल-दशम्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
असित-चौदशि-जेठ हने अरी, गिरि-समेद-थकी शिव-तिय वरी।
सकल-इन्द्र जजें तित आइ के, हम जजें इत मस्तक नाइ के।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्ण-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
जयमाला
(छन्द रथोद्धता, चन्द्रवत्स तथा चन्द्रवर्म)
शांति शांतिगुन-मंडिते सदा, जाहि ध्यावत सुपंडिते सदा ।
मैं तिन्हें भगति मंडिते सदा, पूजिहूँ कलुष हंडिते सदा ।।
मोच्छ-हेत तुम ही दयाल हो, हे जिनेश गुन-रत्नमाल हो ।
मैं अबै सुगुन-दाम ही धरूं, ध्यावते तुरत मुक्ति-तिय वरूं ।।
(छन्द पद्धरि, मात्रा १५)
जय शांतिनाथ चिद्रूप-राज, भवसागर में अद्भुत-जहाज ।
तुम तजि सरवारथ-सिद्ध थान, सरवारथ-जुत गजपुर महान् ।१।
तित जनम लियो आनंद-धार, हरि ततछिन आयो राजद्वार ।
इन्द्रानी जाय प्रसूति-थान, तुम को कर में ले हरष-मान ।२।
हरि-गोद देय सो मोदधार, सिर चमर अमर ढारत अपार ।
गिरिराज जाय तित शिला-पांडु, ता पे थाप्यो अभिषेक माँडु ।३।
तित पंचम-उदधि-तनो सु वार, सुर कर-कर करि ल्याये उदार ।
तब इन्द्र सहस-कर करि अनंद, तुम सिर धारा ढारी सुमंद ।४।
अघ घघ घघ धुनि होत घोर, भभ भभ भभ धध धध कलश शोर ।
दृम दृम दृम दृम बाजत मृदंग, झन नन नन नन नन नूपुरंग ।५।
तन नन नन नन नन तनन तान, घन नन नन घंटा करत ध्वान ।
ता-थेइ थेइ थेइ थेइ थेइ सुचाल, जुत नाचत गावत तुमहिं भाल ।६।
चट चट चट अटपट नटत नाट, झट झट झट हट नट थट विराट ।
इमि नाचत राचत भगति रंग, सुर लेत जहाँ आनंद-संग ।७।
इत्यादि अतुल-मंगल सुठाठ, तित बन्यो जहाँ सुर-गिरि विराट ।
पुनि करि नियोग पितु-सदन आय, हरि सौंप्यो तुम तित वृद्धि थाय ।८।
पुनि राजमाँहिं लहि चक्ररत्न, भोग्यो छह-खंड करि धरम-जत्न ।
पुनि तप धरि केवल-रिद्धि पाय, भवि-जीवनि को शिवमग बताय ।९।
शिवपुर पहुँचे तुम हे जिनेश, गुण-मंडित अतुल अनंत-भेष ।
मैं ध्यावत हूं नित शीश-नाय, हमरी भव-बाधा हर जिनाय ।१०।
सेवक अपनो निज जान-जान, करुणा करि भौ-भय भान-भान ।
यह विघन-मूल-तरु खंड-खंड, चितचिंतित आनंद मंड-मंड ।११।
श्री शांति महंता, शिवतिय-कंता, सुगुन-अनंता भगवंता ।
भव-भ्रमन हनंता, सौख्य अनंता, दातारं तारनवंता ।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिनाथ-जिन के पद-पंकज, जो भवि पूजें मन-वच-काय।
जनम-जनम के पातक ता के, तत-छिन तजि के जांय पलाय।।
मनवाँछित सुख पावे सो नर, बाँचे भगति-भाव अति लाय।
ता तें ‘वृन्दावन’ नित वंदे, जा तें शिवपुर-राज कराय।।
।। इत्याशीर्वाद: परिपुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
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