Posted on 22-May-2020 09:17 PM
कवि श्री जुगलकिशोर युगल
(हरिगीतिका)
निज वज्र-पौरुष से प्रभो! अंतर-कलुष सब हर लिये |
प्रांजल प्रदेश-प्रदेश में, पीयूष-निर्झर झर गये ||
सर्वोच्च हो अतएव बसते, लोक के उस शिखर रे |
तुम को हृदय में स्थाप, मणि-मुक्ता चरण को चूमते ||
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपते सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपते सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपते सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)
(वीर छन्द)
शुद्धातम-सा परिशुद्ध प्रभो! यह निर्मल-नीर चरण लाया |
मैं पीड़ित निर्मम-ममता से, अब इसका अंतिम-दिन आया ||
तुम तो प्रभु अंतर्लीन हुए, तोड़े कृत्रिम सम्बन्ध सभी |
मेरे जीवन-धन तुमको पा, मेरी पहली अनुभूति जगी ||
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१।
मेरे चैतन्य-सदन में प्रभु! धू-धू क्रोधानल जलता है |
अज्ञान-अमा के अंचल में, जो छिपकर पल-पल पलता है ||
प्रभु! जहाँ क्रोध का स्पर्श नहीं, तुम बसे मलय की महकों में |
मैं इसीलिए मलयज लाया, क्रोधासुर भागे पलकों में ||
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।२।
अधिपति प्रभु! धवल-भवन के हो, और धवल तुम्हारा अन्तस्तल |
अंतर के क्षत् सब नि:क्षत् कर, उभरा स्वर्णिम-सौंदर्य विमल ||
मैं महामान से क्षत-विक्षत, हूँ खंड-खंड लोकांत-विभो |
मेरे मिट्टी के जीवन में, प्रभु! अक्षत की गरिमा भर दो ||
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३|
चैतन्य-सुरभि की पुष्प-वाटिका, में विहार नित करते हो |
माया की छाया रंच नहीं, हर बिन्दु-सुधा की पीते हो ||
निष्काम प्रवाहित हर हिलोर, क्या काम! काम की ज्वाला से |
प्रत्येक प्रदेश प्रमत्त हुआ, पाताल-मधु-मधुशाला से ||
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४।
यह क्षुधा देह का धर्म प्रभो! इसकी पहिचान कभी न हुर्इ |
हर पल तन में ही तन्मयता, क्षुत्-तृष्णा अविरल पीन हुर्इ ||
आक्रमण क्षुधा का सह्य नहीं, अतएव लिये हैं व्यंजन ये |
सत्वर तृष्णा को तोड़ प्रभो! लो, हम आनंद-भवन पहुँचे ||
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।
विज्ञान-नगर के वैज्ञानिक, तेरी प्रयोगशाला! विस्मय |
कैवल्य-कला में उमड़ पड़ा, सम्पूर्ण विश्व का ही वैभव ||
पर तुम तो उससे अतिविरक्त, नित निरखा करते निज-निधियाँ |
अतएव प्रतीक प्रदीप लिये, मैं मना रहा दीपावलियाँ ||
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६।
तेरा प्रासाद महकता प्रभु! अति दिव्य-दशांगी धूपों से |
अतएव निकट नहिं आ पाते, कर्मों के कीट-पतंग अरे ||
इस धूप सुरभि-निर्झरणी से, मेरा पर्यावरण विशुद्ध हुआ |
छक गया योग-निद्रा में प्रभु! सर्वांग अमी है बरस रहा ||
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामिति स्वाहा।७।
निज-लीन परम-स्वाधीन बसे, प्रभु! तुम सुरम्य शिव-नगरी में |
प्रतिपल बरसात गगन से हो, रसपान करो शिवगगरी से ||
ये सुरतरुओं के फल साक्षी, यह भव-संतति का अंतिम-क्षण |
प्रभु! मेरे मंडप में आओ, है आज मुक्ति का उद्घाटन ||
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामिति स्वाहा।८।
तेरे विकीर्ण गुण सारे प्रभु! मुक्ता-मोदक से सघन हुए |
अतएव रसास्वादन करते, रे! घनीभूत अनुभूति लिये ||
हे नाथ! मुझे भी अब प्रतिक्षण, निज अंतर-वैभव की मस्ती |
है आज अर्घ्य की सार्थकता, तेरी अस्ति मेरी बस्ती ||
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९।
जयमाला
(दोहा)
चिन्मय हो चिद्रूप प्रभु! ज्ञाता-मात्र चिदेश |
शोध-प्रबन्ध चिदात्म के, सृष्टा तुम ही एक ||
(रेखता)
जगाया तुमने कितनी बार! हुआ नहिं चिर-निद्रा का अंत |
मदिर-सम्मोहन ममता का, अरे! बेचेत पड़ा मैं संत ||
घोर-तम छाया चारों ओर, नहीं निज-सत्ता की पहिचान |
निखिल जड़ता दिखती सप्राण, चेतना अपने से अनजान ||
ज्ञान की प्रतिपल उठे तरंग, झाँकता उसमें आतमराम |
अरे! आबाल सभी गोपाल, सुलभ सबको चिन्मय अभिराम ||
किंतु पर-सत्ता में प्रतिबद्ध, कीर-मर्कट-सी गहल अनंत |
अरे! पाकर खोया भगवान्, न देखा मैंने कभी बसंत ||
नहीं देखा निज शाश्वत-देव, रही क्षणिका पर्यय की प्रीति |
क्षम्य कैसे हों ये अपराध? प्रकृति की यही सनातन-रीति ||
अत: जड़-कर्मों की जंजीर, पड़ी मेरे सर्वात्म-प्रदेश |
और फिर नरक-निगोदों बीच, हुए सब निर्णय हे! सर्वेश ||
घटा घन-विपदा की बरसी, कि टूटी शंपा मेरे शीश |
नरक में पारद-सा तन टूक, निगोदों मध्य अनंती मीच ||
करें क्या स्वर्ग-सुखों की बात! वहाँ की कैसी अद्भुत-टेव |
अंत में बिलखे छह-छह मास, कहें हम कैसे उनको देव ||
दशा चारों गति की दयनीय, दया का किन्तु न यहाँ विधान |
शरण जो अपराधी को दे, अरे! अपराधी वह भगवान् ||
अरे! मिट्टी की काया बीच, महकता चिन्मय भिन्न अतीव |
शुभाशुभ की जड़ता तो दूर, पराया-ज्ञान वहाँ परकीय ||
अहो! चित् परम-अकर्ता नाथ! अरे! वह निष्क्रिय तत्त्व-विशेष |
अपरिमित अक्षय वैभव-कोष, सभी ज्ञानी का यह परिवेश ||
बताये मर्म अरे! यह कौन, तुम्हारे बिन वैदेही नाथ |
विधाता शिव-पथ के तुम एक, पड़ा मैं तस्कर-दल के हाथ ||
किया तुमने जीवन का शिल्प, खिरे सब मोह-कर्म और गात |
तुम्हारा पौरुष-झंझावात, झड़ गये पीले-पीले पात ||
नहीं प्रज्ञा-आवर्तन शेष, हुए सब आवागमन अशेष |
अरे प्रभु! चिर-समाधि में लीन, एक में बसते आप अनेक ||
तुम्हारा चित्-प्रकाश कैवल्य, कहें तुम ज्ञायक लोकालोक |
अहो! बस ज्ञान जहाँ हो लीन, वही है ज्ञेय वही है भोग ||
योग-चांचल्य हुआ अवरुद्ध, सकल चैतन्य निकल-निष्कंप |
अरे! ओ योगरहित योगीश! रहो यों काल अनंतानंत ||
जीव कारण-परमात्म त्रिकाल, वही है अंतस्तत्त्व अखंड |
तुम्हें प्रभु! रहा वही अवलंब, कार्य-परमात्म हुए निर्बन्ध ||
अहो! निखरा कांचन चैतन्य, खिले सब आठों कमल पुनीत |
अतीन्द्रिय-सौख्य चिरंतन-भोग, करो तुम धवल-महल के बीच ||
उछलता मेरा पौरुष आज, त्वरित टूटेंगे बंधन नाथ |
अरे! तेरी सुख-शय्या बीच, होगा मेरा प्रथम-प्रभात ||
प्रभो! बीती विभावरी आज, हुआ अरुणोदय शीतल-छाँव |
झूमते शांति-लता के कुंज, चलें! अब अपने उस गाँव ||
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा)
चिर-विलास चिद्ब्रह्म में, चिर-निमग्न भगवंत |
द्रव्य-भाव स्तुति से प्रभो! वंदन तुम्हें अनंत ||
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
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