Posted on 30-Dec-2020 08:09 PM
संजम रतन विभूषन भूषित, दूषन वर्जित श्री जिनचन्द |
सुमति रमा रंजन भवभंजन, संजययंत तजि मेरु नरिंद ||
मातु मंगला सकल मंगला, नगर विनीता जये अमंद |
सो प्रभु दया सुधा रस गर्भित आय तिष्ठ इत हरो दुःख दंद |1|
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्|
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |
पंचम उदधितनों सम उजज्वल, जल लीनों वरगंध मिलाय |
कनक कटोरी माहिं धारि करि, धार देहु सुचि मन वच काय ||
हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय |
तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय ||
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1|
मलयागर घनसार घसौं वर, केशर अर करपूर मिलाय |
भवतपहरन चरन पर वारौं, जनम जरा मृतु ताप पलाय ||हरि0
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2|
शशिसम उज्ज्वल सहित गंधतल, दोनों अनी शुद्ध सुखदास |
सौ लै अखय संपदा कारन, पुञ्ज धरौं तुम चरनन पास ||हरि0
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3|
कमल केतकी बेल चमेली, करना अरु गुलाब महकाय |
सो ले समरशूल छयकारन, जजौं चरन अति प्रीति लगाय ||हरि0
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4|
नव्य गव्य पकवान बनाऊँ, सुरस देखि दृग मन ललचाय |
सौलै क्षुधारोग छयकारण, धरौं चरण ढिग मन हरषाय ||हरि0
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5|
रतन जड़ित अथवा घृतपूरित, वा कपूरमय जोति जगाय |
दीप धरौं तुम चरनन आगे जातें केवलज्ञान लहाय ||हरि0
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6|
अगर तगर कृष्णागरु चंदन, चूरि अगनि में देत जराय |
अष्टकरम ये दुष्ट जरतु हैं, धूम धूम यह तासु उड़ाय ||हरि0
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7|
श्रीफल मातुलिंग वर दाड़िम, आम निंबु फल प्रासुक लाय |
मोक्ष महाफल चाखन कारन, पूजत हौं तुमरे जुग पाय ||हरि0
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8|
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु दीप धूप फल सकल मिलाय |
नाचि राचि शिरनाय समरचौं, जय जय जय जय जिनराय ||हरि0
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9|
पंच कल्याणक अर्घ्यावली
संजयंत तजि गरभ पधारे, सावनसेत दुतिय सुखकारे |
रहे अलिप्त मुकुर जिमि छाया, जजौं चरन जय जय जिनराया ||
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लद्वितीयादिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि0स्वाहा |1|
चैत सुकल ग्यारस कहँ जानो, जनमे सुमति त्रयज्ञानों |
मानों धर्यो धरम अवतारा, जजौं चरनजुग अष्ट प्रकारा ||
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां जन्ममंगलमण्डिताय श्रीसुमति0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |2|
चैत सुकल ग्यारस तिथि भाखा, तादिन तपधरि निजरस चाखा |
पारन पद्म सद्म पय कीनों, जजत चरन हम समता भीनों ||
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां तपोमंगलमण्डिताय श्रीसुमति0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |3|
सुकल चैत एकादशी हाने, घाति सकल जे जुगपति जाने |
समवसरनमँह कहि वृष सारं, जजहुं अनंत चतुष्टयधारं ||
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां ज्ञान साम्राज्यप्राप्ताय श्रीसुमति0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |4|
चैत सुकल ग्यारस निर्वाणं, गिरि समेद तें त्रिभुवन मानं |
गुन अनन्त निज निरमल धारी, जजौं देव सुधि लेहु हमारी ||
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीसुमति0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |5|
जयमाला
सुमति तीन सौ छत्तीसौं, सुमति भेद दरसाय |
सुमति देहु विनती करौं, सु मति विलम्ब कराय |1|
दयाबेलि तहँ सुगुननिधि, भविकमोद गण चन्द |
सुमतिसतीपति सुमति कों, ध्यावौं धरि आनन्द |2|
पचं परावरतन हरन, पंच सुमति सिर देन |
पंच लब्धि दातार के, गुन गाऊँ दिन रैन |3|
(छंद : भुजंगप्रयात)
पिता मेघराजा सबै सिद्ध काजा, जपें नाम ता को सबै दुःखभाजा |
महासुर इक्ष्वाकुवंशी विराजे, गुणग्राम जाकौ सबै ठौर छाजै |4|
तिन्हों के महापुण्य सों आप जाये, तिहुँलोक में जीव आनन्द पाये |
सुनासीर ताही धारी मेरु धायो, क्रिया जन्म की सर्व कीनी यथा यों |5|
बहुरि ताकों सौंपि संगीत कीनों, नमें हाथ जोरी भलीभक्ति भीनों |
विताई दशै लाख ही पूर्व बालै, प्रजा उन्तीस ही पूर्व पालै |6|
कछु हेतु तें भावना बार भाये, तहाँ ब्रह्मलोकान्तके देव आये |
गये बोधि ताही समै इन्द्र आयो, धरे पालकी में सु उद्यान ल्यायो |7|
नमः सिद्ध कहि केशलोंचे सबै ही, धर्यो ध्यान शुद्धं जु घाती हने ही |
लह्यो केवलं औ समोसर्न साजं, गणाधीश जु एक सौ सोल राजं |8|
खिरै शब्द तामें छहौं द्रव्य धारे, गुनौपर्ज उत्पाद व्यय ध्रौव्य सारे |
तथा कर्म आठों तनी थिति गाजं, मिले जासु के नाश तें मोक्षराजं |9|
धरें मोहिनी सत्तरं कोड़कोड़ी, सरिपतिप्रमाणं थिति दीर्घ जोड़ी |
अवर्ज्ञान दृग्वेदिनी अन्तरायं, धरें तीस कोड़ाकुड़ि सिन्धुकायं |10|
तथा नाम गोतं कुड़ाकोड़ि बीसं, समुद्र प्रमाणं धरें सत्तईसं |
सु तैतीस अब्धिं धरें आयु अब्धिं, कहें सर्व कर्मों तनी वृद्धलब्धिं |11|
जघन्यप्रकारे धरे भेद ये ही, मुहूर्तं वसू नामगोतं गने ही |
तथा ज्ञान दृग्मोह प्रत्यूह आयं, सुअन्तर्मुहूर्त्तं धरें थित्ति गायं |12|
तथा वेदनी बारहें ही मुहुर्तं, धरैं थित्ति ऐसे भन्यो न्यायजुत्तं |
इन्हें आदि तत्वार्थ भाख्यो अशेसा, लह्यो फेरि निर्वाण मांहीं प्रवेसा |13|
अनन्तं महन्तं सुरंतं सुतंतं, अमन्दं अफन्दं अनन्तं अभन्तं |
अलक्षं विलक्षं सुलक्षं सुदक्षं, अनक्षं अवक्षं अभक्षं अतक्षं |14|
अवर्णं सुवर्णं अमर्णं अकर्णं, अभर्णं अतर्णं अशर्णं सुशर्णं |
अनेकं सदेकं चिदेकं विवेकं, अखण्डं सुमण्डं प्रचण्डं सदेकं |15|
सुपर्मं सुधर्मं सुशर्मं अकर्मं, अनन्तं गुनाराम जयवन्त धर्मं |
नमें दास वृन्दावनं शर्न आई, सबै दुःख तें मोहि लीजे छुड़ाई |16|
तुम सुगुन अनन्ता घ्यावत सन्ता, भ्रमतम भंजन मार्तंडा |
सतमज करचंडा भवि कज मंडा, कुमतिकुबल भन गन हंडा ||
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||
(छंद : रोड़क)
सुमति चरन जो जजैं भविक जन मनवचकाई |
तासु सकल दुख दंद फंद ततछिन छय जाई ||
पुत्र मित्र धन धान्य शर्म अनुपम सो पावै |
वृन्दावन निर्वाण लहे निहचै जो ध्यावै ||
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
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